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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 280 यदाह, साध्यदृष्टांतयोर्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमा इति / तत्रोत्कर्षसमा तावल्लक्षणतो निदर्शनतश्चापि विधीयतेदृष्टांतधर्मं साध्यार्थे समासंजयतः स्मृता। तत्रोत्कर्षसमा यत्क्रियावजीवसाधने // 340 // क्रियाहेतुगुणासंगी यद्यात्मा लोष्ठवत्तदा। तद्वदेव भवेदेष स्पर्शवानन्यथा न सः॥३४१॥ दृष्टांतधर्मं साध्ये समासंजयतः स्मृतोत्कर्षसमा जाति: स्वयं, यथा क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणयोगाल्लोष्ठवत् इत्यत्र क्रियावज्जीवसाधने प्रोक्ते सति परः प्रत्यवतिष्ठते। यदि क्रियाहेतुगुणासंगी पुमांल्लोष्ठवत्तदा लोष्ठवदेव स्पर्शवान् भवेत्। अथ न स्पर्शवांल्लोष्ठवदात्मा क्रियावानपि न स स्यादिति विपर्यये वा विशेषो वाच्य इति॥ प्रकार साध्य (शब्द आदि पक्ष) में दृष्टान्त वृत्ति हेतु का सर्वथा सादृश्य आपादन किया जाता है, वह अवर्ण्य समा जाति है। इसी प्रकार पाँचवीं सातवीं (पहिली से) विकल्प समा जाति में तो मूल लक्षण यों घटानां चाहिए कि पक्ष और दृष्टान्त में जो धर्म उसका विकल्प यानी विरुद्ध कल्प व्यभिचारीपन आदि से प्रसंग देना है, वह विकल्पसमा के उत्थान का बीज है। चाहे जिस किसी भी धर्म का कहीं भी व्यभिचार दिखला करके धर्मपन की अविशेषता से प्रकरण प्राप्त हेतु का भी प्रकरणप्राप्त साध्य के साथ व्यभिचार दिखला देना विकल्पसमा है। छट्ठी या आठवीं साध्यसमा जाति के साध्यधर्म का दृष्टान्त में प्रसंग देने से अथवा पक्ष और दृष्टान्त दोनों के धर्म हेतु आदि के साध्यपन से उठा दी जाती है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि जैसे : घट है, वैसा शब्द है, तब तो जैसा यह शब्द है, तैसा घट भी अनित्य हो जाए। इस प्रकार नैयायिकों के यहाँ उत्कर्ष, अपकर्ष, वर्ण्य, अवर्ण्य, विकल्प और साध्य सम पृथक्-पृथक् छह जातियाँ हैं। उनका लक्षण दृष्टान्त सहित समझ लेना चाहिए // 338-339 / / न्याय सूत्रकार गौतम ने उत्कर्षसमा आदि छह जातियों के विषय में जो सूत्र कहा है कि साध्य और दृष्टान्त में धर्म का विकल्प करने से अथवा उभय को साध्यपना करने से उत्कर्षसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा-इस प्रकार छह जातियों का लक्षण बन जाता है। उन छह में प्रथम उत्कर्षसमा जाति का लक्षण और दृष्टान्त से भी अब विधान किया जाता है। न्यायभाष्यकार उत्कर्षसमा का लक्षण दृष्टान्त सहित कहते हैं कि दृष्टान्त के धर्म को साध्यरूप अर्थ में प्रसंग कराना उत्कर्षसमा जाति कही गयी है। जैसे जीव को क्रियावान् साधने पर यह प्रसंग उठाया जाता है कि हेतु गुणों का सम्बन्धी आत्मा यदि लोष्ट समान क्रियावान् है, तो उसी लोष्ट के समान यह आत्मा स्पर्श गुण वाला भी प्राप्त हो जाता है। अन्यथा आत्मा लोष्ट के समान यदि स्पर्शवान् नहीं है, तो वह आत्मा लोष्ट के समान क्रियावान् भी नहीं हो सकेगा। यह उत्कर्षसमा जाति है॥३४०-३४१।। ___ दृष्टान्त के अतिरिक्त धर्म का साध्य में प्रसंग देने वाले प्रतिवादी के ऊपर स्वयं उत्कर्षसमा जाति है। जैसे कि आत्मा (पक्ष) क्रियावान् है (साध्य)। क्रिया के सम्पादक कारण गुणों का संसर्गी होने से (हेतु) उछलते, गिरते हुए, लोष्ट के समान (अन्वयदृष्टान्त)। इस प्रकार यहाँ अनुमान में वादी द्वारा जीव के
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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