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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 271 तथोदाहतिवैधात्साध्यस्यार्थस्य साधनं। हेतुस्तस्मिन् प्रयुक्तेपि परस्य प्रत्यवस्थितिः॥३१५॥ साधणेह दृष्टांते दूषणाभासवादिनः। जायमाना भवेजातिरित्यन्वर्थे प्रवक्ष्यते // 316 // उद्योतकरस्त्वाह-जाति मस्थापनाहेतौ प्रयुक्ते यः प्रतिषेधासमर्थो हेतुरिति सोपि प्रसंगस्य परपक्षप्रतिषेधार्थस्य हेतोर्जननं जातिरित्यन्वर्थसंज्ञामेव जातिं व्याचष्टेऽन्यथा न्यायभाष्यविरोधात्॥ कथमेवं जातिबहुत्वं कल्पनीयमित्याहसधर्मत्वविधर्मत्वप्रत्यवस्थाविकल्पतः / कल्प्यं जातिबहुत्वंस्याद्व्यासतोऽनंतशः सताम्।।३१७॥ यथा विपर्ययज्ञानाज्ञाननिग्रहभेदतः। बहुत्वं निग्रहस्थानस्योक्तं पूर्वं सुविस्तरम् // 318 // यदि उदाहरण के वैधर्म्य से (जब) उलाहना देता है, उस समय वह असत् उत्तर को कहने वाला जातिवादी कहा जाता है, तथा वादी के कहे गये हेतु का प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है। उस प्रतिवादी के वचन दूषणाभास है अर्थात् वस्तुत: दूषण नहीं होकर दूषण सदृश है। जब वादी का हेतु अक्षुण्ण बना रहा तो प्रतिवादी का दोष उठाना कुछ भी नहीं // 313-314 // उदाहरण के वैधर्म्य से साध्य अर्थ को साधने वाला हेतु होता है, वादी द्वारा उस हेतु के भी प्रयुक्त किये जाने पर दूसरे प्रतिवादी के द्वारा दृष्टान्त में साधर्म्य से जो यहाँ प्रत्यवस्थान देना है, वह दूषणाभास को कहने वाले प्रतिवादी की प्रसंग को उत्पन्न करने वाली जाति है। इस प्रकार जाति शब्द का निरुक्ति द्वारा धात्वर्थ अनुसार अर्थ करने पर उक्त लक्षण कह दिया जाता है अर्थात् असत् उत्तर को कहने वाले जातिवादी की पराजय हो जाती है और समीचीन को कहने वाले वादी की जीत हो जाती है॥३१५-३१६॥ उद्योतकर कहता है कि जाति का लक्षण तो इस नाम से ही सिद्ध है। ___अपने पक्ष की स्थापना करने वाले हेतु के वादी द्वारा प्रयुक्त किये जाने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा उस पक्ष का प्रतिषेध करने में असमर्थ हेतु का उत्पन्न होना (वह) जाति कही जाती है। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाला उद्योतकर पण्डित प्रसंग का यानी परपक्ष का निषेध करने के लिए कहे गये हेतु का उत्पन्न होना जाति है। इस प्रकार, यौगिक अर्थ के अनुसार अन्वर्थ नाम संकीर्तन को धारने वाली जाति का ही कथन कर रहा है। अन्यथा न्यायभाष्य ग्रन्थ से विरोध आता है। अत: रूढ़ या योगरूढ़ अर्थ अनुसार जाति का अर्थ मानने पर उद्योतकर का कथन नैयायिक के विरुद्ध पड़ता है। जब साधर्म्य और वैधर्म्य से दूषण उठानेरूप जाति एक ही है, तो फिर इस प्रकार जाति का बहुतपंना (चौबीस संख्या) किस प्रकार से कल्पित की गई है? इस प्रकार, जिज्ञासा होने पर नैयायिकों के उत्तर का अनुवाद करते हुए श्री विद्यानंद स्वामी कहते हैं समान धर्मत्व और विधर्मत्व के द्वारा कथित दोष प्रसंग के विकल्प से जातियों का बहुतपना (चौबीसपना) कल्पित कर लिया जाता है। अधिक विस्तार की अपेक्षा से सज्जनों के यहाँ जातियों के अनन्तश: विकल्प किये जा सकते हैं। जैनों के यहाँ भी अधिक प्रभेदों की विवक्षा होने पर पदार्थों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हो जाते हैं॥३१७॥ . जिस प्रकार विप्रतिपत्ति (विपर्ययज्ञान) और अप्रतिपत्ति (अज्ञानस्वरूप) निग्राहकों के भेद से निग्रहस्थानों का बहुतपना पूर्व प्रकरणा में बहुत बार विस्तारपूर्वक कथन किया गया है॥३१८॥ अनेक
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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