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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 272 तत्र ह्यप्रतिभाज्ञानाननुभाषणपर्यनु-। योज्योपेक्षणविक्षेपा लभंतेऽप्रतिपत्तिताम् // 319 // शेषा विप्रतिपत्तित्वं प्राप्नुवंति समासतः / तद्विभिन्नस्वभावस्य निग्रहस्थानमीक्षणात् / / 320 // तत्रातिविस्तरेणानंतजातयो न शक्या वक्तुमिति विस्तरेण चतुर्विंशतिर्जातयः प्रोक्ता इत्युपदर्शयतिप्रयुक्ते स्थापनाहेतौ जातयः प्रतिषेधिकाः। चतुर्विंशतिरत्रोक्तास्ता: साधर्म्यसमादयः // 321 // तथा चाह न्यायभाष्यकारः। साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य विकल्पाजातिबहुत्वमिति सक्षपणोक्तं, तद्विस्तरेण विभिद्यते। ताश्च खल्विमा जातयः स्थापनाहेतौ प्रयुक्ते चतुर्विंशतिः प्रतिषेधहेतव“साधर्म्यवैधोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसंगप्रतिदृष्टांतानुपपत्तिसंशयप्रकरणाहेत्वर्थापत्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमा:” इति सूत्रकारवचनात् / / कल्पनाएँ करना अथवा अनेक प्रकार की कल्पना करना यहाँ विकल्प समझा जाता है। न्यायभाष्यकार कहते हैं कि उन निग्रहस्थानों में अप्रतिभा, अज्ञान, अननुभाषण, पर्यनुयोज्योपेक्षण, विक्षेप, मतानुज्ञा ये निग्रहस्थान तो अप्रतिपत्तिपन को प्राप्त हैं, तथा शेष बचे हुए प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थान विपरीत अथवा कुत्सित प्रतिपत्ति होने रूप विप्रतिपत्तिपन को प्राप्त हो जाते हैं। संक्षेप से विचार किये जाने पर उन विप्रतिपत्ति और अविप्रतिपत्ति इन दो निग्रहस्थानों से विभिन्न स्वभाव वाले तीसरे निग्रहस्थान का किसी को भी कभी अवलोकन नहीं होता है अर्थात् संक्षेप से ये दो निग्रहस्थान ही दृष्टिगोचर होते हैं // 319-320 / / जाति के प्रकरण में अत्यन्त विस्तार से कथन करने पर तो अनन्त जातियाँ हैं जो शब्दों द्वारा नहीं कही जा सकती हैं। अतः मध्यम विस्तार से चौबीस जातियाँ न्यायदर्शन में कही हैं। भाष्यकार की इसी बात को ग्रन्थकार दिखलाते हैं - प्रकृत साध्य की स्थापना करने के लिए वादी द्वारा हेतुके प्रयुक्त किये जाने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध कराने के कारण यहाँ साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा, आदिक चौबीस जातियाँ कही गयी हैं॥३२१॥ न्यायभाष्यकार कहते हैं कि साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा प्रत्यवस्थान के भेद से जातियों का बहुत्व हो जाता है। इस प्रकार, संक्षेप से तो एक ही प्रत्यवस्थान रूप जाति कही गयी है, उस साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा प्रत्यवस्थान के विस्तार से जाति के विभाग कर दिये जाते हैं। तथा वे जातियाँ निश्चयपने से हेतु के प्रयुक्त किये जाने पर पुनः प्रतिषेध के कारणभूत चौबीस हैं - 1 साधर्म्यसमा 2 वैधर्म्यसमा 3 उत्कर्षसमा 4 अपकर्षसमा 5 वर्ण्यसमा 6 अवर्ण्यसमा 7 विकल्प समा 8 साध्यसमा 9 प्राप्तिसमा 10 अप्राप्तिसमा 11 प्रसंगसमा 12 प्रतिदृष्टान्तसमा 13 अनुत्पत्तिसमा 14 संशयसमा 15 प्रकरणसमा 16 अहेतुसमा 17 अर्थापत्तिसमा 18 अविशेषसमा 19 उपपत्तिसमा 20 उपलब्धिसमा 21 अनुपलब्धिसमा 22 नित्यसमा 23 अनित्यसमा 24 कार्यसमा। इस प्रकार जातियों के चौबीस भेद कहे हैं। इस प्रकार सूत्रकार का वचन है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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