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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 254 हेत्वाभासत्रयं तेपि समर्थं नातिवर्तितुं। अन्यथानुपपन्नत्ववैकल्यं तच्च नैककम् // 276 // यथैकलक्षणो हेतुः समर्थः साध्यसाधने / तथा तद्विकलाशक्तो हेत्वाभासोनुमन्यताम् // 277 // यो ह्यसिद्धतया साध्यं व्यभिचारितयापि वा। विरुद्धत्वेन वा हेतुः साधयेन्न स तन्निभः // 278 // पाँच प्रकार के या सात प्रकार के हेत्वाभासों को मानने वाले नैयायिक भी बौद्धों के द्वारा कथित तीन हेत्वाभासों का उल्लंघन करने के लिए समर्थ नहीं हैं और बौद्धों के द्वारा कथित तीन हेत्वाभासों का कथन भी अन्यथानुपपन्नत्व से विकल (रहित) नहीं हो सकता // 276 / / भावार्थ - नैयायिक या वैशेषिक सिद्धान्त में जो सात या पाँच हेत्वाभास माने हैं, वे सर्व बौद्धों के द्वारा स्वीकृत असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक इन तीन हेत्वाभास में गर्भित हो जाते हैं। क्योंकि पक्षवृत्तित्वगुण असिद्ध हेत्वाभास का निराकरण करने के लिए है। सपक्षसत्त्व गुण विरुद्ध हेत्वाभास का निराकरण करने के लिए है और विपक्ष व्यावृत्ति अनेकान्त को दूर करने के लिए है। बौद्ध के द्वारा स्वीकृत तीन हेत्वाभास और नैयायिकों के पाँच या सात हेत्वाभास भी एक अविनाभाव विकलता नामक हेत्वाभास में गर्भित हो जाते हैं। क्योंकि साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला एक हेतु लक्षण ही कार्य करने में समर्थ है। अविनाभाव सम्बन्ध रहित पाँच अंग या हीन अंग वाला हेतु कार्य करने में समर्थ नहीं है। हेत्वाभासों की संख्या भी केवल एक अन्यथानुपपत्ति की विकलता दी है। अत: जैन सिद्धान्तानुसार हेत्वाभास का अन्यथानुपपत्ति रहितपना एक ही भेद मानना चाहिए। ___ जिस प्रकार एक अविनाभाव लक्षण से युक्त हेतु साध्य को साधने में समर्थ है, उसी प्रकार अकेले अविनाभाव से विकल हेतु साध्य को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। इसलिए अन्यथानुपपत्ति विकलता नामक एक ही हेत्वाभास स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् यह एक ही हेत्वाभास अनुमिति या उसके कारण व्याप्तिज्ञान, परामर्श आदि का विरोध करता हुआ साध्यसिद्धि में प्रतिबन्धक हो जाता है। जो भी हेतु असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक होने से साध्य को सिद्ध नहीं करता है, वह अविनाभाव विकल (अन्यथानुपपत्ति रहित) होने से हेत्वाभास है। अतः एक अविनाभाव विकलता ही हेत्वाभास है॥२७७-२७८॥ असिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचारी हेतु यदि साध्य अविनाभावी नियम लक्षण से युक्त है, तब तो हेत्वाभास होने योग्य नहीं है। परन्तु असिद्ध आदि हेत्वाभासों के इस प्रकार अविनाभाव सम्बन्ध का नियम नहीं है। क्योंकि उन असिद्ध आदि हेत्वाभासों का साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध का योग नहीं है अर्थात् जो अविनाभाव विकल है, वह सद् हेतु नहीं है और जो अविनाभाव सहित है, वह असिद्ध आदि रूप हेत्वाभास नहीं है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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