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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 255 असिद्धादयोपि हेतवो यदि साध्याविनाभावनियमलक्षणयुक्तास्तदा न हेत्वाभासा भवितुमर्हति। न चैवं, तेषां तदयोगात्। न ह्यसिद्धः साध्याविनाभावनियतस्तस्य स्वयमसत्त्वात्। नाप्यनैकांतिको विपक्षेपि भावात् / न च विरुद्धो विपक्ष एव भावादित्यसिद्धादिप्रकारेणाप्यन्यथानुपपन्नत्ववैकल्यमेव हेतोः समर्थ्यते / ततस्तस्य हेत्वाभासत्वमिति संक्षेपादेक एव हेत्वाभासः प्रतीयते अन्यथानुपपन्नत्वनियमक्षणैकहेतुवत् / अतस्तद्वचनं वादिनो निग्रहस्थान परस्य पक्षसिद्धाविति प्रतिपत्तव्यं / तथा च संक्षेपतः ‘स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिन' इति व्यवतिष्ठते। न पुनर्विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्ती तद्भावेपि कस्यचित्स्वपक्षसिद्धाभावे परस्य पराजयानुपपत्तेरसाधनांगवचनादोषोद्भावनमात्रवत् छलवद्वा॥ किं पुनश्छलमित्याह क्योंकि जो असिद्ध हेत्वाभास ह वह साध्य के साथ अविनाभाव रखना रूप नियम से युक्त नहीं है क्योंकि वह स्वयं पक्ष में विद्यमान नहीं है। विपक्ष में सद्भाव होने से अनैकान्तिक हेत्वाभास भी साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला नहीं है। विरुद्ध हेत्वाभास भी साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला नहीं है। क्योंकि विरुद्ध हेत्वाभास का विपक्ष में सद्भाव पाया जाता है। इसलिए असिद्ध आदि हेत्वाभासों के अन्यथानुपपत्ति से विकलता ही हेतु का समर्थन किया है। अतः सिद्ध होता है कि अकेली अन्यथानुपपत्ति के ही हेत्वाभासत्व है। इस प्रकार, संक्षेप से, एक ही हेत्वाभास प्रतीत होता है। जैसे अन्यथानुपपत्ति रूप नियम का धारक समीचीन हेतु एक ही प्रकार का है। अतः एक ही प्रकार के हेत्वाभास का कथन करने से वादी का निग्रह स्थान हो जाता है और दूसरे प्रतिवादी के द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि हो जाने से वादी का निग्रह (पराजय) हो जाता है, ऐसा समझना चाहिए। - इस प्रकार के सिद्धान्त का निर्णय हो जाने पर, संक्षेप से एक के स्वपक्ष की सिद्धि हो जाने पर दूसरे वादी या प्रतिवादी का निग्रह (पराजय) हो जाता है, यह व्यवस्था है। नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत सामान्य लक्षण विप्रतिपत्ति और अविप्रतिपत्ति, निग्रहस्थान नहीं हैं क्योंकि उन विपरीत प्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति के होने पर भी वादी वा प्रतिवादी में किसी एक के स्वपक्ष की सिद्धि के अभाव में दूसरे की पराजय होना संभव नहीं है। . जैसे केवल असाधनांग वचन और अदोषोद्भावन से छल से विजय प्राप्त नहीं हो सकती, पराजय नहीं हो सकती। इसलिए विजय प्राप्त करने के लिए स्वपक्ष की सिद्धि करना परमावश्यक है। ' छल किसे कहते हैं? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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