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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 252 तत्राभ्युपेत्य शब्दादीन्नित्यानेव पुनः स्वयम् / ताननित्यान् ब्रुवाणस्य पूर्वसिद्धांतबाधनम् // 27 // तथैव शून्यमास्थाय तस्य संविदमात्रतः। पूर्वस्योत्तरतो बाधा सिद्धांतस्यान्यथा क्व तत्॥२७१॥ प्रधानं चैवमासृत्य तद्विकारप्ररूपणम् / तादृगेवान्यथा हेतुस्तत्र न स्यात्समन्वयः // 27 // ब्रह्मात्माद्वैतमप्येवमुपेत्यागमवर्णनं / कुर्वन्नाम्नायनिर्दिष्टं बाध्योन्योप्यनया दिशा // 273 // स्वयं प्रवर्तमानाश्च सर्वथैकांतवादिनः। अनेकांताविनाभूतव्यवहारेषु तादृशाः // 274 // यदप्यवादि, हेत्वाभासाश्च यथोक्ता इति तत्राप्याह उस अप सिद्धान्त में निम्नलिखित उदाहरण दिये जा सकते हैं कि मीमांसक सर्वप्रथम शब्द आत्मा आदि को नित्य स्वीकार करता है। पुनः शास्त्रार्थ करते समय शब्द आदि को अनित्य मान लेता है, इस प्रकार नित्य स्वीकार करके पुनः अनित्य कहने वाले मीमांसक के पूर्व सिद्धान्त (शब्द नित्य है इस प्रतिज्ञा) में बाधा उपस्थित हो जाती है। उसी प्रकार शून्यवाद की प्रतिज्ञापूर्वक आस्था (श्रद्धा) करके पुनः उस शून्यवाद के संवेदन का कथन करने से भी पूर्व सिद्धान्त की उत्तर कालवी कथन से बाधा उपस्थित हो जाती है। अत: यह अपसिद्धान्त है। अन्यथा वह विरुद्ध कथन कैसे हो सकता था? अर्थात् शून्य तत्त्व का संवेदन (ज्ञान) मानने पर ज्ञान पदार्थ वस्तुभूत सिद्ध हो जाता है। अतः जगत् शून्य है। यह सिद्धान्त सिद्ध कैसे हो सकता है? // 270-271 // इसी प्रकार, एक प्रधान (प्रकृति) तत्त्व का आश्रय लेकर उस प्रधान के विकारों (महान्, अहंकार; तन्मात्रायें, इन्द्रियाँ, पाँच भूत) का कथन करना भी उसी प्रकार अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान है। अर्थात्प्रधान को एक स्वीकार करके पुनः भेदकथन करना सिद्धान्त विरुद्ध (अपसिद्धान्त) होता है। अन्यथा वह वहाँ समन्वय रूप हेतु नहीं रह सकता है॥२७२॥ इसी प्रकार परमब्रह्म आत्मा को अद्वैत स्वीकार करके पुनः अनादिकालीन गुरुपरम्परा से प्राप्त आम्नाय से कथित वेद आगम की प्रमाणता का वर्णन करने वाला ब्रह्माद्वैतवादी बाधित हो जाता है। अर्थात् ब्रह्माद्वैतवाद को मानकर उससे भिन्न आगम को स्वीकार करने से ब्रह्माद्वैत का विघात हो जाता है और वादी स्वकीय सिद्धान्त से च्युत हो जाता है। इसी संकेत से अन्य भी अपसिद्धान्त नामकनिग्रह स्थान समझना चाहिए अर्थात् ज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत या जीव तत्त्व को स्वीकार कर पुन: द्वैतवाद या जड़वाद का निरूपण करने लग जाना अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान है। इस प्रकार अन्य भी अपसिद्धान्त के दृष्टान्त समझना चाहिए। अनेकान्त के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले व्यवहारों में स्वयं प्रवत्ति करने वाले सर्वथा एकान्तवादी पुरुष भी वैसे ही एक प्रकार से अपसिद्धान्तवादी हैं। अर्थात् सर्वथा क्षणिकवाद, कूटस्थ नित्यवाद, गुण-गुणी में सर्वथा भेद या अभेद रूप स्वीकार करने पर अर्थक्रिया नहीं होती है। अत: यह क्षणिकवाद आदि सिद्धान्त अपसिद्धान्त हैं / / 273-274 / / जो पूर्व में हेत्वाभास कहा था वही निग्रहस्थान है। उसी को आचार्य कहते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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