SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *251 यथोक्तं कार्यव्यासंगात्कथाविच्छेदो विक्षेपः यत्र कर्त्तव्यं व्यासज्यकथां विच्छिनत्ति प्रतिस्थाय कलामेकां क्षणोति पश्चात्कथयिष्यामीति स विक्षेपो नाम निग्रहस्थानं तथा तेनाज्ञानस्याविष्करणादिति तदपि न सदित्याह सभां प्राप्तस्य तस्य स्यात्कार्यव्यासंगतः कथा। विच्छेदस्तस्य निर्दिष्टो विक्षेपो नाम निग्रहः॥२६६॥ सोपि नाप्रतिभातोस्ति भिन्नः कश्चन पूर्ववत् / तदेवं भेदतः सूत्रं नाक्षपादस्य कीर्तिकृत् // 267 // यदप्युक्तं, सिद्धांतमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसंगोपसिद्धान्तः प्रतिज्ञातार्थव्यतिरेकेणाभ्युपेतार्थपरित्यागान्निग्रहस्थानमिति, तदपि विचारयति स्वयं नियतसिद्धांतो नियमेन विना यदा। कथा प्रसंजयेत्तस्यापसिद्धांतस्तथोदितः // 268 // सोप्ययुक्तः स्वपक्षस्यासाधनेनेन तत्त्वतः। असाधनांगवचनाद्दोषोद्भावनमात्रवत् // 269 // तथा नैयायिक न जो कहा था कि कार्य व्यासंग से वाद कथा का विच्छेद कर देना विक्षेप नामक निग्रहस्थान है। किसी कारणवश मन के विक्षिप्त हो जाने से वादी यदि प्रकरणभूत वाद कथा का जहाँ विच्छेद कर देता है, वा अपने साधने योग्य कार्य को सिद्ध करना अशक्य समझ कर समय बिताने के लिए असत्य कर्तव्य का प्रकरण उठाकर उसमें मनोयोग को लगाता है, वाद कथा में विघ्न डालता है, कुछ काल के अन्तर इस वाद को कहूँगा-इस प्रकार यह विक्षेप नामक निग्रहस्थान है। अथवा वक्ता के कोई रोग आदि हो जाने पर विक्षेप नामक निग्रहस्थान नहीं होता है। इसलिए अज्ञान के कारण हेतु के द्वारा वाद कथा का विच्छेद करना दोष है। अत: यह विक्षेप नामक निग्रहस्थान है। इस प्रकार नैयायिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिक के द्वारा स्वीकृत विक्षेप नामक निग्रहस्थान समीचीन नहीं है। उसी का आचार्य स्पष्ट रूप से कथन करते हैं - शास्त्रार्थ करने के लिए सभा को प्राप्त उस वादी का कार्य में व्याक्षेप हो जाने से जो कथा का विच्छेद कर दिया जाता है, वह वादी का विक्षेप नामक निग्रहस्थान कहा गया है। परन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि यह विक्षेप नामक निग्रंहस्थान भी अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान से पृथक् नहीं है। जैसे मतानुज्ञा निरनुयोज्यानुयोग आदि पूर्व कथित निग्रहस्थान अप्रतिभा, अज्ञान निग्रहस्थान से भिन्न नहीं हैं। इसलिए इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप से निग्रहस्थानों के लक्षण सूत्र बनाना अक्षपाद के लिए कीर्तिकर नहीं हैं? // 266-267 // स्वकीय सिद्धान्त को स्वीकार करके प्रतिज्ञातार्थ के विपर्यय रूप अनियम से कथा का प्रसंग उठाना अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान है। ऐसा गौतम सूत्र में लिखा है तथा प्रतिज्ञातार्थ के व्यतिरेक से स्वीकृत अर्थ का परित्याग हो जाने से यह निग्रह स्थान माना गया है। अर्थात् स्वीकृत प्रतिज्ञा के विरुद्ध अर्थ की सिद्धि करना अपसिद्धान्त नामक निग्रह स्थान है। इसी निग्रह स्थान का आचार्य विचार करते हैं - ____वादी के द्वारा स्वयं नियत सिद्धान्त के नियम परिवर्तन बिना अन्य वाद का कथन करना अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान कहा गया है। परन्तु वह अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान युक्तिपूर्ण नहीं है। तत्त्वदृष्टि से देखा जाए तो स्वपक्ष साधन के बिना असाधन अंग वचन से दोषों का उद्भावन मात्र है। अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि किये बिना केवल दोषों का उद्भावन करने से विजय की प्राप्ति नहीं हो सकती॥२६८२६९॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy