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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 248 स्वयं प्रतिभया हि चेत्तदंतर्भावनिर्णयः। सभ्यैरुद्भावनीयत्वात्तस्य भेदो महानहो // 248 // वादेप्युद्भावयन्नैतन्न हि केनापि धार्यते। स्वं कौपीनं न कोपीह विवृणोतीति चाकुलम् // 249 // उत्तराप्रतिपत्तिर्हि परस्योद्भावयन्स्वयं / साधनस्य सदोषत्वमाविर्भावयति ध्रुवम् // 250 // संभवत्युत्तरं यत्र तत्र तस्यानुदीरणम् / युक्तं निग्रहणं नान्यथेति न्यायविदां मतम् // 251 // निर्दोषसाधनोक्तौ तु तूष्णींभावाद्विनिग्रहः / प्रलापमानतो वेति पक्षसिद्धेः स आगतः // 252 // यदप्यभ्यधायि, स्वपक्षदोषाभ्युपगमात्परपक्षे दोषप्रसंगो मतानुज्ञा। यः परेण चोदितं दोषमनुद्धृत्य भवतोप्ययं दोष इति ब्रवीति सा मतानुज्ञास्य निग्रहस्थानमिति, तदप्यपरीक्षितमेवेति परीक्ष्यते- . नैयायिक कहता है कि अप्रतिभा से निगृहीत पुरुष में प्रतिभा नहीं है और पर्यनुयोज्योपेक्षण से निगृहीत में प्रतिभा विद्यमान है। अथवा, स्वयं वक्ता प्रतिभा से अन्तर्भाव का निर्णय करता है और यह पर्यनुयोज्योपेक्षण तो मध्यस्थ सभासदों के द्वारा उत्थापन करने योग्य है। अत: अप्रतिभा से उस पर्यनुयोज्योपेक्षण का महान् भेद है। क्योंकि किसी के द्वारा वाद में इस निग्रहस्थान को उठाने पर वह अवधारित नहीं होता है अर्थात् वाद में भी वादी, प्रतिवादी के द्वारा उठाया गया निग्रहस्थान किसी के भी द्वारा मनोनुकूल धारण नहीं किया जाता है। निग्रहस्थान को प्राप्त स्वयं अपना निग्रहस्थान नहीं उठाता है। निग्रहस्थान को प्राप्त हुआ कोई भी पुरुष इस लोक में अपने आप अपनी कौपीन (लंगोटी). को खोलकर नहीं फेंक देता है अर्थात् स्वकीय निग्रहस्थान को स्वयं प्रकट नहीं करता है। क्योंकि पर्यनुयोज्योपेक्षण उठाने के लिए निगृहीत को आकुलता उपस्थित हो जाती है। इसलिए इसका निर्णय माध्यस्थों के ऊपर रख दिया गया है।॥२४८-२४९ // ___जो पण्डित दूसरे के उत्तर की अप्रतिपत्ति को स्वयं उठा रहा है, वह स्वयं अपने साधन के दोष सहितत्व को निश्चय से प्रगट कर रहा है॥२५०॥ जिस स्थल पर जो उत्तर संभव है, उसका वहाँ कथन नहीं करना अप्रतिभा निग्रहस्थान है। ऐसा कहना युक्त है। अन्य प्रकार से निग्रहस्थान नहीं है। ऐसा न्यायशास्त्रों के जानने वालों का मन्तव्य है॥२५१॥ जैनाचार्य कहते हैं कि वादी द्वारा निर्दोष हेतु का कथन कर चुकने पर प्रतिवादी का चुप रह जाना विशेष रूप से निग्रहस्थान है। अथवा केवल व्यर्थ बकवाद करने से प्रतिवादी का निग्रह होता है। अत: स्वपक्ष की सिद्धि ही दूसरे का निग्रहस्थान (वा पराजय) है। स्वपक्ष की सिद्धि के बिना केवल निग्रहस्थान से कोई निगृहीत नहीं होता है। इसलिए अज्ञान से भिन्न “पर्यनुयोज्योपेक्षण' नाम का निग्रहस्थान नहीं है॥२५२॥ ___ जो नैयायिक ने कहा था कि स्वपक्ष के दोषों को स्वीकार करके परपक्ष में दोषों का प्रसंग देना परपक्ष में दोष उठाना मतानुज्ञा नामक निग्रह स्थान है। अथवा, जो दूसरों के द्वारा कथित दोषों का उद्धार (निराकरण) नहीं करके “आपके पक्ष में भी ये ही दोष हैं" - ऐसा कहता है वह उसके मतानुज्ञा नामक निग्रह स्थान है। जैनाचार्य कहते हैं कि यह नैयायिकों का कथन अपरीक्षित है (बिना विचारे कहा गया है)। इसलिये उसकी परीक्षा करते हैं - दूसरे के द्वारा कथित दोषों को स्वकीय पक्ष में स्वीकार करके, उस दोष का निराकरण नहीं करके
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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