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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 249 स्वपक्षे दोषमुपयन् परपक्षे प्रसंजयन् / मतानुज्ञामवाप्नोति निगृहीतिं न युक्तितः // 253 / / द्वयोरेवं सदोषत्वं तात्त्विकैः स्थाप्यते यतः। पक्षसिद्धिनिरोधस्य समानत्वेन निर्णयात् // 254 // अनैकांतिकतैवैवं समुद्भाव्येति केचन। हेतोरवचने तच्च नोपपत्तिमदीक्ष्यते // 255 // तथोत्तराप्रतीतिः स्यादित्यप्याग्रहमात्रकं / सर्वस्याज्ञानमात्रत्वापत्तेर्दोषस्य वादिनोः // 256 // संक्षेपतोन्यथा क्वायं नियमः सर्ववादिनाम्। हेत्वाभासोत्तरावित्ती कीर्ते: स्यातां यतः स्थितेः // 257 // ननु चाज्ञानमात्रेपि निग्रहेति प्रसज्यते। सर्वज्ञानस्य सर्वेषां सादृश्यानामसंभवात् // 258 // सत्यमेतदभिप्रेतवस्तुसिद्धिप्रयोगिनोः। ज्ञानस्य यदि नाभावो दोषोन्यस्यार्थसाधने // 259 // सत्स्वपक्षप्रसिद्ध्यैव निग्राह्योन्य इति स्थितम् / समासतोनवद्यत्वादन्यथा तदयोगतः॥२६०॥ वादी पर पक्ष में भी उसी दोष को उठाता है, वह मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान को प्राप्त होता है। नैयायिकों का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि इस कथन से तात्त्विक (तत्त्व को जानने वाले) पुरुषों ने वादी और प्रतिवादी दोनों के ही सदोषपना स्वीकार किया है (सदोषत्व स्थापित किया है)। क्योंकि दोनों के ही समान रूप से स्वकीय पक्षसिद्धि के निरोध का निर्णय है। अर्थात् दोनों के ही पक्ष की सिद्धि का अभाव है॥२५३-२५४॥ कोई विद्वान् मतानुज्ञा नामकनिग्रह स्थान में “अनैकान्तिक हेत्वाभास संभव है" - ऐसा कहता है अर्थात् मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान अनैकान्तिक हेत्वाभास है - ऐसा कहता है। अतः मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान का कथन उचित नहीं है। परन्तु इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि हेतु का कथन किये बिना अनैकान्तिक हेत्वाभास कहना युक्तिसंगत नहीं दीखता है। अर्थात् जहाँ हेतु का कथन ही नहीं किया गया है, वहाँ हेत्वाभास का कथन करना उपयुक्त नहीं है तथा उसे उत्तराप्रतिपत्ति (अप्रतिभा नामक निग्रह स्थान) कहना भी उनका दुराग्रह मात्र ही है। क्योंकि वादी और प्रतिवादियों के प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, अननुभाषण, अप्रतिभा आदि सर्व दोषों की अज्ञान मात्र से ही उपपत्ति है, अर्थात् सर्व दोष अज्ञान निग्रह में गर्भित हो जाते हैं। अतः इनकी पृथक् गणना करना व्यर्थ है। अन्यथा सम्पूर्ण वादियों के यहाँ संक्षेप से यह नियम करना कैसे बनेगा कि दोषों की गणना करने से यश की अपेक्षा हेत्वाभास और उत्तराप्रतिपत्ति ये दो दोष समझने चाहिए जिससे कि उपर्युक्त व्यवस्था हो सके! अर्थात् सभी वादियों के यहाँ संक्षेप से हेत्वाभास और उत्तराप्रतिपत्ति ये दो दोष ही कल्पित किये हैं। अतः मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान सिद्ध नहीं होता // 255-256-257 / / शंका - सभी निग्रहस्थानों को यदि अज्ञानमात्र में ही गर्भित किया जाता है, तो अतिप्रसंग दोष आता है क्योंकि सभी जीवों के सर्वज्ञानों की सदृशताओं की असंभवता है॥२५८॥ समाधान - जैनाचार्य कहते हैं कि यह तुम्हारा कहना सत्य है; किन्तु अभिप्रेत (इच्छित) साध्य वस्तु की सिद्धि करने के लिए प्रयुक्त ज्ञान का यदि अभाव नहीं है, तो स्वकीय अभीष्ट अर्थ के साधन करने पर ही दूसरे सन्मुख स्थित वादी वा प्रतिवादी का दोष कहा जाता है। तभी वह वादी प्रतिवादी समीचीन
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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