SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 247 अज्ञातं च किलाज्ञानं विज्ञातस्यापि संसदा। परस्य निग्रहस्थानं तत्समानं प्रतीयते // 243 // सर्वेषु हि प्रतिज्ञानहान्यादिषु न वादिनोः। अज्ञानादपरं किंचिन्निग्रहस्थानमांजसम् // 244 // तेषामेतत्प्रभेदत्वे बहुनिग्रहणं न किम् / अर्धाज्ञानादिभेदानां बहुधात्रावधारणात् // 245 // उत्तराप्रतिपत्तिरप्रतिभेत्यपि निग्रहस्थानमस्य नाज्ञानादन्यदित्याहउत्तराप्रतिपत्तिर्या परैरप्रतिभा मता। साप्येतेन प्रतिव्यूढा भेदेनाज्ञानतः स्फुटम् // 246 // यदप्युक्तं, निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणं निग्रहस्थानमिति, तदपि न साधीय इत्याह। यः पुनर्निग्रहप्राप्तेप्यनिग्रह उपेयते। कस्यचित्पर्यनुयोज्योपेक्षणं तदपि कृतम् // 247 // सभा के द्वारा विज्ञात अर्थ का प्रतिवादी के द्वारा नहीं समझना वा प्रतिवादी के समझ में नहीं आना यह प्रतिवादी का अविज्ञात नामक निग्रहस्थान भी अज्ञान नामक निग्रहस्थान के समान ही प्रतीत हो रहा है अर्थात् अज्ञान नामक निग्रह स्थान अननुभाषण वा अपार्थक नामक निग्रहस्थान के समान ही है; इनमें कोई विशेषता नहीं है / / 243 // तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, पुनरुक्त, अपार्थक, न्यून, अधिक, अननुभाषण आदि सम्पूर्ण निग्रहस्थानों में वादी या प्रतिवादी के अज्ञान से भिन्न कोई दूसरा निग्रहस्थान निर्दोष नहीं है // 244 / / _ यदि उन प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानों को इस अज्ञान के भेद, प्रभेद स्वरूप मानकर पृथक् निर्देश किया जाता है तो बहुत से निग्रहस्थान क्यों नहीं होंगे? क्योंकि वादी वा प्रतिवादी के द्वारा कथित अर्ध ज्ञान होना (अर्धज्ञान निग्रह स्थान) चतुर्थांश ज्ञान होना, विपरीत ज्ञान होना आदि बहुत से निग्रहस्थानों की अवधारणा हो सकती है। अत: निग्रहस्थानों की संख्या का नियम नहीं हो सकता॥२४५॥ - विद्वान् (के द्वारा) तत्त्व को समझकर भी यदि अवसरकाल में उत्तर नहीं देता है तो वह प्रतिवादी का अप्रतिभा नामक निग्रह स्थान है। जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिक के द्वारा स्वीकृत अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान भी अज्ञान नामक निग्रहस्थान से भिन्न नहीं है। इसी अर्थ को स्पष्ट करते हैं - - जो नैयायिकों के द्वारा अवसर काल में उत्तर नहीं देने को अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान माना गया है, उस निग्रहस्थान का इस हेतु से खण्डन कर दिया गया है। क्योंकि अज्ञान निग्रहस्थान से अप्रतिभा का व्यक्त रूप से कोई भेद प्रतीत नहीं होता है अर्थात् अज्ञान और उत्तर की अप्रतिपत्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं है॥२४६॥ जो नैयायिक ने निग्रहप्राप्त वादी, प्रतिवादी का पुनः निग्रह नहीं करना पर्यनुयोज्योपेक्षण नामक निग्रह स्थान कहा था, वह निग्रह स्थान भी श्रेष्ठ नहीं है। इसी को आचार्य कहते हैं - निग्रहस्थान को प्राप्त का पुनः निग्रह नहीं करना चाहिए। इसको किसी ने “पर्यनुयोज्योपेक्षण' नाम का निग्रह स्थान स्वीकार किया है परन्तु वह निग्रहस्थान अप्रतिभा या अज्ञान नामक निग्रहस्थान से भिन्न नहीं है। उसी में इसका अन्तर्भाव हो जाता है।।२४७।।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy