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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 12 निर्वर्तितशरीरादिकृतस्यार्थस्य वेदनात् / ऋज्वी निर्वर्तिता त्रेधा प्रगुणा च प्रकीर्तिता // 2 // अनिर्वर्तितकायादिकृतार्थस्य च वेदिका। विपुला कुटिला षोढा वक्रर्जुत्रयगोचरा // 3 // एतयोर्मतिशब्देन वृत्तिरन्यपदार्थका। कैश्चिदुक्ता स चान्योऽर्थो मन:पर्यय इत्यसन्॥४॥ द्वित्वप्रसंगतस्तत्र प्रवक्तुं धीधनो जनः। न मनःपर्ययो युक्तो मनःपर्यय इत्यलम् // 5 // यदात्वन्यौ पदार्थों स्तस्तद्विशेषौ बलाद्गतौ / सामान्यतस्तदेकोऽयमिति युक्तं तथा वचः॥६॥ ऋज शब्द का अर्थ बनाया गया और सरल दोनों प्रकार कहा गया है। सरलतापूर्वक काय, वचन, मन द्वारा किये गए परकीय मनोगत अर्थ का संवेदन करने से ऋजुमति तीन प्रकार की कही गई है। अर्थात् अपने या दूसरे के द्वारा सरलतापूर्वक शरीर से किये गये, वचन से बोले गये और मन से चिंतन किये गये अर्थ को यदि कोई जीव मन में विचार ले तो ऋजुमति मन:पर्यय उस मन में चिंतित पदार्थ का ईहामतिज्ञानपूर्वक विकल प्रत्यक्ष कर लेता है। सरल और पूर्ण रूप से चिंतित, इन दोनों अर्थों को घटित कर मन, वचन, काय की अपेक्षा से ऋजुमति के तीन भेद हो जाते हैं-मन से चिंतित ऋजुकायकृत अर्थ को जानने वाला, मन से चिंतित ऋजुवाक्कृत अर्थ को जानने वाला और मन से चिंतित ऋजुमनस्कृत अर्थ को जानने वाला // 2 // तथा काय, वचन, मन से परकीय मनोगत विज्ञान से चिंतित नहीं किये गए सरल या कुटिल अथवा बहुत से शरीर आदि कृत अर्थों को जानने वाली मति विपुला है। वह वक्र और सरलस्वरूप से मन, वचन, काय इन तीनों के द्वारा किये गए मनोगत विषयों को जानती हुई छह प्रकार की है॥३॥ इन ऋजु और विपुल शब्दों की मति शब्द के साथ की गई अन्य पदार्थ को प्रधान कहने वाली बहुब्रीहि समास नामक वृत्ति किन्हीं विद्वानों ने कही है, वह अन्य पदार्थ मन:पर्यय ज्ञान है। अर्थात् जिस मन:पर्ययज्ञान की मति ऋजु है और जिस मन:पर्यय ज्ञान की मति विपुला है, वह ऋजुमति विपुलमति मनःपर्यय है-यह विग्रह किया गया है। / परन्तु इस प्रकार उन विद्वानों का कहना प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि इस प्रकार कहने पर वहाँ मन:पर्यय शब्द में द्विवचन हो जाने का प्रसंग आता है जैसे कि जिस पुरुष का धन बुद्धि है, वह “बुद्धिधनो जन:” या “धीधनः" है। यहाँ उद्देश्य के अनुसार जन शब्द एकवचन है अत: अन्य पदार्थ मन:पर्ययज्ञान के साथ वृत्ति करने पर 'मन:पर्ययः' इस प्रकार एक वचन कहना युक्त नहीं पड़ता, किन्तु “मनःपर्ययौ'यह कहना उस वृत्ति द्वारा अर्थ करने में समर्थ होगा क्योंकि दो मन:पर्ययज्ञानों की ऋजुमति और विपुलमति दो मतियाँ हैं // 4-5 // __अथवा जब वे दो विशेष अन्य पदार्थ उस सामान्य एक मन:पर्यय की शक्ति से ही जान लिये गए मान लेंगे तब तो जिस प्रकार यह मनःपर्यय शब्द एक वचन भी सामान्य रूप से प्रयुक्त करना युक्त है अतः बहुब्रीहि समास करने पर भी एकवचन रक्षित रह सकता है, कोई क्षति नहीं है॥६॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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