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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 13 सामानाधिकरण्यं च न सामान्यविशेषयोः। प्रबाध्यते तदात्मत्वात्कथंचित्संप्रतीतितः॥७॥ येऽप्याहुः / ऋजुश्च विपुला च ऋजुविपुले ते च ते मतीति च स्वपदार्थवृत्तिस्तेन ऋजुविपुलमती विशिष्टे परिच्छिन्ने मन:पर्यय उक्तो भवतीति तदकथनं प्रतीयत इति तेषामप्यविरोधमुपदर्शयति / स्वपदार्था च वृत्तिः स्यादविरुद्धा तथा सति। विशिष्टे हि मतिज्ञाने मन:पर्यय इष्यते // 8 // यथ विपुलमती मन:पर्ययविशेषौ मन:पर्ययसामान्येनेति सामानाधिकरण्यमविरुद्ध सामान्यविशेषयोः कथंचित्तादात्म्यात्तथा संप्रतीतेश्च तद्वदृजुविपुलमती ज्ञानविशेषौ मनःपर्यययोर्ज्ञानमित्यपि न विरुध्यते मनःपर्ययज्ञानभेदाप्रतिपत्तेः प्रकृतयोः सद्भावात् विशेषात् / कथं बाह्यकारणप्रतिपत्तिरत्रेत्याह ____ "ऋजुविपुलमती" द्विवचन पद है और मनःपर्यय एकवचन शब्द है। अतः इनका समान अधिकरणपना नहीं बनता क्योंकि समान विभक्ति वाले, समान लिंग वाले, समान वचन वाले, शब्दों का ही सामानाधिकरण्य बन सकता है। यह शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सामान्य और विशेष में समानाधिकरणपना किसी भी प्रकार से बाधित नहीं होता है और सामान्य और विशेषों का कथंचित् तदात्मकपना होने के कारण समान अधिकरणपना प्रतीत होता है। अर्थात् “मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानम्” अथवा “साधो:कार्यं तपःश्रुते” “आद्ये परोक्षम्" आदि प्रयोगों में निर्बाधित समानाधिकरणपना है। सामान्य प्रायः एकवचन और विशेष प्रायः द्विवचन और बहुवचन हुआ करते हैं / / 7 / / .. जो भी कोई विद्वान् समासवृत्ति कर कह रहे हैं कि ऋजु और विपुला इस प्रकार इतर-इतर योग करने पर 'ऋजुविपुले' बनता है और वे ऋजुविपुलास्वरूप जो मति है, इस प्रकार अपने ही पद के अर्थों को प्रधान रखने वाली द्वन्द्वगर्भित कर्मधारय वृत्ति की गयी है। एतदर्थ विशिष्ट ऋजुमति और विपुलमति ज्ञान मनःपर्यय ज्ञान का कथन करता है। उस द्विवचन द्वारा भेदकथन करना प्रतीत होता है। इस प्रकार कहने वाले उन विद्वानों के यहाँ भी जैनसिद्धान्तानुसार कोई विरोध नहीं आता है। इस बात को स्वयं ग्रन्थकार प्रकट कर रहे हैं। . उक्त कथनानुसार समास वृत्ति करने पर स्वपदार्थप्रधाना कर्मधारयवृत्ति अविरुद्ध हो जाती है, और ऐसा होने पर मन:पर्यय स्वरूप ऋजुमति और विपुलमतिनामक मतिज्ञान एक मन:पर्यय, इसके साथ अन्वित इष्ट कर लिये हैं॥८॥ - जिस प्रकार ऋजुमति और विपुलमति ये मनःपर्ययज्ञान के दो विशेषण प्रकरणप्राप्त मनःपर्यय सामान्य के साथ समान अधिकरणपने को प्राप्त होने से विरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि सामान्य और विशेषों को कथंचित् तदात्मकपना हो जाने से सामानाधिकरण्य प्रतीत होता है। उसी प्रकार जिसके समान ऋजुमति और विपुलमति ये दो ज्ञान विशेष हैं, वह एक मन:पर्यय ज्ञान है। इस प्रकार कथन करने पर कोई विरोध प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि मन:पर्यय ज्ञान में सामान्य से भेद की प्रतिपत्ति नहीं होने का सद्भाव इन प्रकरणप्राप्त ऋजुमति और विपुलमति दोनों में विद्यमान है। कोई अन्तर चहीं है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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