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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 11 ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः // 23 // नन्विह बहिरंगकारणस्य भेदस्य च ज्ञानानां प्रस्तुतत्वान्ने वक्तव्यं ज्ञानभेदकारणाप्रतिपादकत्वादित्यारेकायामाह मन:पर्ययविज्ञानभेदकारणसिद्धये। प्राहवित्यादिकं सूत्रं स्वरूपस्य विनिश्चयात् // 1 // न हि मनःपर्ययज्ञानस्वरूपस्य निश्चयार्थमिदं सूत्रमुच्यते यतोऽप्रस्तुतार्थं स्यात्। तस्य मत्यादिसूत्रे निरुक्त्यैव निश्चयात्। किं तर्हि / प्रकृतस्य बहिरंगकारणस्य भेदस्य प्रसिद्धये समारभते। ऋज्वी मतिर्यस्य स ऋजुमतिः। विपुला मतिर्यस्य स विपुलमतिः / ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजुविपुलमती। एकस्य मतिशब्दस्य गम्यमानत्वाल्लोप इति व्याख्याने का सा ऋज्वी विपुला च मतिः किंप्रकारा च मतिशब्देन चान्यपदार्थानां वृत्तौ कोऽन्यपदार्थ इत्याह अवधिज्ञान का प्ररूपण कर अब अवसर संगति अनुसार क्रमप्राप्त मन:पर्यय ज्ञान का प्रतिपादन करने के लिए आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं मनःपर्यय ज्ञान ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है॥२३॥ दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों को जानने वाला मन:पर्यय ज्ञान कहलाता है। . इस प्रकरण में ज्ञानों के बहिरंग कारण और भेदों के निरूपण करने का प्रसंग चल रहा है अत: मन:पर्ययज्ञान के स्वरूप का प्रतिपादक यह सूत्र क्यों कहा गया है? ज्ञान के भेद और बहिरंग कारणों का प्रतिपादक तो यह सूत्र नहीं है। अतः इस प्रकरण में यह सूत्र नहीं कहना चाहिए। इस प्रकार की आशंका का आचार्य यहाँ स्पष्ट समाधान करते हैं - मनःपर्यय ज्ञान के स्वरूप का विशेष निश्चय "मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम्" - सूत्र में कहे गये मनःपर्यय शब्द की निरुक्ति से करा दिया गया है। किन्तु यहाँ मन:पर्यय ज्ञान के भेद और बहिरंग कारणों की प्रसिद्धि कराने के लिए उमास्वामी महाराज ने “ऋजुविपुल" इत्यादि सूत्र को कहा है॥१॥ मनःपर्ययज्ञान के स्वरूप का निश्चय कराने के लिए यह सूत्र नहीं कहा गया है, जिससे कि प्रकरण के प्रस्ताव में प्राप्त अर्थ को प्रतिपादित करने वाला यह सूत्र न हो सके अर्थात् यह सूत्र प्रस्तावप्राप्त प्रकरण के अनुसार ही है। उस मनःपर्यय के स्वरूप का निश्चय तो “मतिःस्मृति:" आदि सूत्र में निरुक्ति करके ही कह दिया गया है। परन्तु यहाँ बहिरंगकारण और भेद की प्रसिद्धि कराने के लिए यह सूत्र प्रारम्भ किया गया है। जिसकी मति ऋजु (सरल) है उसको ऋजुमति कहते हैं। परकीय मनोगत पदार्थों को जानने वाला वह मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति है। विपुल (कुटिल) है मति जिसकी वह विपुलमति / परकीय मनोगत अनिवर्तित या वक्र, मन-वचन-काय सम्बन्धी पदार्थ को जानने वाला वह मनःपर्ययज्ञान विपुलमति है। ऋजुमति और विपुलमति इन दोनों का द्वन्द्व समास है-ऋजुविपुलमति / एक मति शब्द से ही गतार्थत्व होने से दो बार मति शब्द का प्रयोग नहीं है अर्थात् एक मति शब्द का लोप हो जाता है। "इस प्रकार व्याख्यान करने पर जिज्ञासाएँ खड़ी होती हैं कि मति शब्द के साथ ऋजु विपुल शब्दों की अन्य पदार्थों को प्रधान करने वाली बहुब्रीहि नामक समास वृत्ति हो जाने पर वह अन्य पदार्थ कौन है जो ऋजुमति और विपुलमति का वाच्य पड़ेगा? इसका श्री विद्यानन्द आचाय स्पष्ट समाधान करते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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