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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 215 ततोनेनैव मार्गेण प्रतिज्ञांतरसंभवः / इत्येतदेव नियुक्तिस्तद्धि नानानिमित्तकं // 138 // प्रतिज्ञाहानितश्चास्य भेदः कथमुपेयते। पक्षत्यागविशेषेपि योगैरिति च विस्मयः॥१३९॥ प्रतिदृष्टांतधर्मस्य स्वदृष्टांतेभ्यनुज्ञया। यथा पक्षपरित्यागस्तथा संधांतरादपि // 140 // स्वपक्षसिद्धये यद्वत्संधांतरमुदाहृतं / भ्रांत्या तद्वच्च शब्दोपि नित्योस्त्विति न किं पुनः॥१४१॥ शब्दानित्यत्वसिद्ध्यर्थं नित्यः शब्द इतीरणं / स्वस्थस्य व्याहतं यद्वत्तथाऽसर्वगशब्दवाक्॥१४२॥ ततः प्रतिज्ञाहानिरेव प्रतिज्ञांतरं निमित्तभेदात्तद्भेदैर्निग्रहस्थानांतराणां प्रसंगात्। तेषां तत्रांतर्भावे प्रतिज्ञांतरस्येति प्रतिज्ञाहानावन्तर्भावस्य निवारयितुमशक्तेः॥ प्रतिज्ञाविरोधमनूद्य विचारयन्नाह प्रतिज्ञाया विरोधो यो हेतुना संप्रतीयते। स प्रतिज्ञाविरोध: स्यादित्येतच्च न युक्तिमत् // 143 // ____ उत्तर - “इसलिए नैयायिक के द्वारा कथित इस मार्ग से ही प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान संभव है।" ऐसा कहना भी युक्ति रहित है। क्योंकि वह प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान अनेक प्रकारों से संभव हो सकता है॥१३८॥ तथा प्रतिज्ञाहानि से इस प्रतिज्ञान्तर का भेद कैसे हो सकता है। अर्थात प्रतिज्ञाहानि से भिन्न प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान को नैयायिक कैसे स्वीकार कर सकते हैं? पक्षरूप प्रतिज्ञा का त्याग नामक प्रतिज्ञाहानि और प्रतिज्ञान्तर में कोई विशेषता नहीं होने पर भी नैयायिकों के द्वारा प्रतिज्ञान्तर नामक भिन्न निग्रह स्थान स्वीकार करना यह आश्चर्यकारक है॥१३९॥ : जिस प्रकार प्रतिकूल दृष्टान्त को धर्म के स्वकीय दृष्टान्त में स्वीकार करने पर वादी के पक्ष का परित्याग (प्रतिज्ञा हानि) हो जाता है, उसी प्रकार प्रतिज्ञान्तर से भी वादी के पक्ष का परित्याग हो जाता है॥१४०॥ ___ जिस प्रकार वादी ने स्वपक्ष की सिद्धि के लिए भ्रान्ति के वश होकर प्रतिज्ञान्तर का कथन किया है. उसी के समान वादी ने प्रतिज्ञा हानि के अवसर पर “शब्द भी नित्य हो जावे"- ऐसा कह दिया है। इसलिए प्रतिज्ञान्तर को प्रतिज्ञाहानि क्यों नहीं मान लिया जाता है? // 141 // .' शब्द के अनित्यत्व की सिद्धि के लिए विचारशील वादी का जिस प्रकार “शब्द नित्य हो सकता है" यह प्रतिज्ञाहानि के अवसर पर कथन करना व्याघात युक्त है, उसी प्रकार प्रतिज्ञान्तर के समय स्वस्थ (विचारशील) वादी का शब्द के असर्वगतत्व की दूसरी प्रतिज्ञा का कथन करना भी व्याघात दोष से युक्त है। अर्थात् ज्ञानी वादी न प्रतिज्ञाहानि करता है न प्रतिज्ञान्तर करता है। संगतिपूर्वक कथन करने वाला अलीक कथन नहीं करता है॥१४२॥ इसलिए सिद्ध होता है कि निमित्त के भेद से प्रतिज्ञाहानि ही प्रतिज्ञान्तर है। प्रतिज्ञान्तर को भिन्न निग्रह स्थान नहीं मानना चाहिए। यदि उन निमित्तों के भेद से पृथक्-पृथक् निग्रह स्थान माने जायेंगे तो अनेक निग्रह स्थानान्तरों का प्रसंग आयेगा। यदि उन निग्रहस्थानों को 24 निग्रहस्थानों में गर्भित कर लिया जायेगा तो फिर प्रतिज्ञान्तर का अन्तर्भाव प्रतिज्ञाहानि में कर लेना चाहिए। तथा प्रतिज्ञान्तर का प्रतिज्ञाहानि में अन्तर्भाव होने का निवारण कौन कर सकता है? अर्थात् नहीं कर सकते। अब विद्यानन्द आचार्य प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रह स्थान का अनुवादन कर विचार करते हैं - प्रयुक्त किये गये हेतु के साथ प्रतिज्ञावाक्य का जो विरोध प्रतीत हो रहा है, वह तीसरा प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रह स्थान है, परन्तु नैयायिकों का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है॥१४३।।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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