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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 214 अत्र धर्मकीर्तेः दूषणमुपदर्शयतिनात्रेदं युज्यते पूर्वप्रतिज्ञायाः प्रसाधने। प्रयुक्तायाः परस्यास्तद्भावहानेन हेतुवत् // 132 // तदसर्वगतत्वेन प्रयुक्तार्दैद्रियत्वतः। शब्दानित्यत्वमाहायमिति हेत्वंतरं भवेत् // 133 // न प्रतिज्ञांतरं तस्य क्वचिदप्यप्रयोगतः। प्रज्ञावतां जडानां तु नाधिकारो विचारणे // 134 // विरुद्धादिप्रयोगस्तु प्राज्ञानामपि संभवात्। कुतश्चिद्विभ्रमात्तत्रेत्याहुरन्ये तदप्यसत् // 135 // प्रतिज्ञातार्थसिद्ध्यर्थं प्रतिज्ञायाः समीक्षणात्। भ्रांतैः प्रयुज्यमानायाः विचारे सिद्धहेतुवत् / 136 // प्राज्ञोपि विभ्रमाद्बयाद्वादेऽसिद्धादिसाधनम्। स्वपक्षसिद्धिर्येन स्यात्सत्त्वमित्यतिदुर्घटम् / 137 // ततो प्रतिपत्तिवत्प्रतिज्ञांतरं कस्यचित्साधनसामर्थ्यापरिज्ञानात् प्रतिज्ञाहानिवत्॥ तर्हि कथमिदमयुक्तमित्याहअतः प्रतिज्ञा अन्तर हो जाना वादी का निग्रह स्थान है। यह नैयायिक का सिद्धान्त है। यहाँ प्रतिज्ञान्तर में धर्मकीर्ति के द्वारा दिये गये दूषण को विद्यानन्द आचार्य दिखाते हैं - धर्मकीर्ति बौद्ध कहते हैं कि “इस प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान में नैयायिकों का कथन करना युक्त नहीं पड़ता है। क्योंकि पूर्व प्रतिज्ञा के प्रसाधन (सिद्ध करने) में प्रयुक्त की गई दूसरी प्रतिज्ञा को उस प्रतिज्ञापन की हानि हो जाती है, जैसे कि विरुद्ध हेतु को प्रयोग करने पर पूर्व हेतु के हेतुत्व की हानि हो जाती है। यह वादी अपने प्रयुक्त किये इन्द्रिय ज्ञान ग्राह्यत्व हेतु से असर्वगत हेतु के द्वारा शब्द के अनित्यत्व को सिद्ध करता है अतः यह प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान न होकर हेत्वन्तर निग्रह स्थान है। क्योंकि बुद्धिमानों ने कहीं पर भी प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञान्तर का प्रयोग नहीं किया है। जो अपत्ति से प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञान्तर को नहीं समझते हैं उन जड़ बुद्धि वाले मूों का तत्त्वों के विचार में अधिकार नहीं है। विरुद्ध व्यभिचार आदि हेत्वाभासों का प्रयोग करना विशिष्ट विद्वानों के भी किसी विभ्रम के कारण संभव हो सकता है। जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों का यह कथन भी प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि भ्रान्त पुरुषों के द्वारा प्रतिज्ञात अर्थ की सिद्धि के लिए विचार कोटि में प्रयुक्त की गई अन्य (दूसरी) प्रतिज्ञा भी देखी जाती है। जैसे पूर्व हेतु की सिद्धि के लिए अन्य हेतु का प्रयोग किया जाता है॥१३२-१३६ / / तथा बुद्धिमान पुरुष भी वाद में विभ्रम हो जाने से असिद्ध, विरुद्ध आदि हेतु का प्रयोग कर लेते हैं। परन्तु जिस हेतु से स्वपक्ष की सिद्धि होती है वही हेतु प्रशंसनीय होता है। अत: बौद्धों के द्वारा कथित सत्त्व हेतु का घटित होना दुर्घट है। सत्त्व हेतु किसी प्रकार घटित नहीं हो सकता है॥१३७|| इसलिए किसी एक वादी को साधन के सामर्थ्य का परिज्ञान नहीं होने से प्रतिज्ञाहानि के समान प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रह स्थान की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। अर्थात् बौद्धों के अनुसार प्रतिज्ञान्तर के निषेध की व्यवस्था युक्त नहीं है। प्रश्न - प्रतिज्ञान्तर अयुक्त क्यों है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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