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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 216 “प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोध' इति सूत्रं / यत्र प्रतिज्ञा हेतुना विरुध्यते हेतुश्च प्रतिज्ञाया: स प्रतिज्ञाविरोधो नाम निग्रहस्थानं, यथा गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं भेदेनाग्रहणादिति न्यायवार्तिकं / तच्च न युक्तिमत्॥ प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे हेतुना हि निराकृते। प्रतिज्ञाहानिरेवेयं प्रकारांतरतो भवेत् // 144 // द्रव्यं भिन्नं गुणात्स्वस्मादिति पक्षेभिभाषिते / रूपाद्यर्थांतरत्वेनानुपलब्धेरितीर्यते // 145 // येन हेतुर्हतस्तेनासंदेहं भेदसंगरः। तदभेदस्य निर्णीतेस्तत्र तेनेति बुध्यताम् // 146 // हेतोर्विरुद्धता वा स्याद्दोषोयं सर्वसंमतः। प्रतिज्ञादोषता त्वस्य नान्यथा व्यतिष्ठते // 147 // “प्रतिज्ञा के हेतु का विरोध ही प्रतिज्ञा विरोध है। यह सूत्र है। जिस साध्य में हेतु के द्वारा प्रतिज्ञा विरुद्ध पड़ती है वा प्रतिज्ञा से हेतु विरुद्ध होता है, वह प्रतिज्ञाविरुद्ध नामक निग्रह स्थान है। जैसे गुण से व्यतिरिक्त (सर्वथा भिन्न) द्रव्य है, क्योंकि द्रव्य और गुणों का भेद रूप से ग्रहण नहीं होता है। अर्थात् द्रव्य से गुण भिन्न दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। इस प्रकार न्याय वार्त्तिक का ग्रन्थकार कहता है। परन्तु यहाँ पर "द्रव्य से गुण भिन्न हैं"- इस प्रतिज्ञा का गुण और द्रव्य का भिन्न-भिन्न ग्रहण नहीं होना रूप हेतु के साथ विरोध ___ यह प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रह स्थान है। किन्तु नैयायिकों का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि विरुद्ध हेतु के द्वारा प्रतिज्ञा के प्रतिज्ञापन का निराकरण हो जाने से यह दूसरे प्रकार से प्रतिज्ञाहानि ही है; पृथक् निग्रहस्थान नहीं है।।१४४॥ स्वकीय गुणों से द्रव्य भिन्न है। इस प्रकार पक्ष के कहने पर पुनः रूप-रसादि गुणों से भिन्न द्रव्य की उपलब्धि नहीं हो रही है, ऐसा कहा जाता है तो इसमें “द्रव्य से गुण भिन्न है" इस साध्य की रक्षा करते हैं तो "द्रव्य से भिन्न रसादि गुणों की उपलब्धि नहीं होती है"- इस हेतु का व्याघात हो जाता है। यदि हेतु की रक्षा करते हैं तो साध्य का विनाश होता है। अत: जिस कारण से हेतु व्यवस्थित है, उससे भेद सिद्ध करने की प्रतिज्ञा निःसन्देह नष्ट हो जाती है। क्योंकि वहाँ उस हेतु के द्वारा द्रव्य के साथ उन गुणों के अभेद का निर्णय हो रहा है॥१४५-१४६ // अथवा हेतु की विरुद्धता (विरुद्धहेत्वाभास) नामक यह दोष सर्वसम्मत है? सभी न्यायवेत्ताओं ने इसे स्वीकार किया है। परन्तु प्रतिज्ञा सम्बन्धी दोष (प्रतिज्ञा विरुद्धता) यह दोष विरुद्ध हेत्वाभास से भिन्न व्यवस्थित नहीं हो सकता। अर्थात् यह विरुद्ध हेत्वाभास हेतु का दोष है। प्रतिज्ञा का दोष नहीं है। हेत्वाभासों की निग्रहस्थानों में गणना नहीं कर सकते / इसलिए “प्रतिज्ञाविरुद्ध" नामक निग्रहस्थान मानना उपयुक्त नहीं है॥१४७।। जो उद्योतकर ने कहा था कि उक्त कथन से ही प्रतिज्ञा विरोध नामक निग्रह स्थान भी कहा जा चुका है - जिस हेतु में स्वकीय वचनों के द्वारा विरुद्धता आती है जैसे 'श्रमणा' (दीक्षिता तपस्विनी) स्त्री गर्भवती है। ‘आत्मा नहीं हैं' इत्यादि प्रयोग स्वकीय वचन से विरुद्ध होते हैं। .
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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