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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 211 पुरुषभ्रांतेरनेक कारणत्वोपपत्तेः। ततो नाप्तोपज्ञमेवेदं सूत्रं भाष्यकारस्य वार्तिककारस्य च व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् युक्त्यागमविरोधात्। अत्र धर्मकीर्तेर्दूषणमुपदर्श्य परिहरन्नाह कुतश्चिदाकुलीभावादन्यतो वा निमित्ततः / तथा तद्वाचि सूत्रार्थो नियमान्न व्यवस्थितः।१२१। यस्त्वाहैंद्रियकत्वस्य व्यभिचाराद्विनश्वरे / शब्दसाध्ये न हेतुत्वं सामान्येनेति सोप्यधीः // 122 // सिद्धसाधनतस्तेषां संधाहानेश्च भेदतः / साधनं व्यभिचारित्वात्तदनंतरतः कुतः॥१२३॥ सास्त्येव हि प्रतिज्ञानहानिर्दोषः कुतश्चन / कस्यचिन्निग्रहस्थानं तन्मात्रात्तु न युज्यते॥१२४॥ येषां प्रयोगयोग्यास्ति प्रतिज्ञानुमितीरणे / तेषां तद्धानिरप्यस्तु निग्रहो वा प्रसाधने // 125 // को स्वपक्ष में स्वीकार कर लना मात्र ही एक प्रतिज्ञाहानि निग्रह स्थान हो सकता है। अर्थात् प्रतिज्ञाहानि अनेक प्रकार से हो सकती है। तथा, विक्षेपादि के द्वारा वादी के आकुलित हो जाने से, स्वभाव से ही सभा में भीरुत्व होने से वा वादी का चित्त इधर उधर भटक जाने से अथवा किन्हीं अन्य प्रकरणों में लग जाने से वा किसी निमित्त कारण से किसी धर्म को साध्य रूप से प्रतिज्ञा करके उस साध्य से विपरीत धर्म को कुछ क्षण के लिए स्वीकार करने की प्रतिज्ञा कर लेना ही देखा जाता है। क्योंकि पुरुषों को भ्रान्तज्ञान होने के अनेक कारण बन जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि नैयायिकों का सिद्धान्त यथार्थ वक्ता आप्त के द्वारा कहा हुआ नहीं है क्योंकि भाष्यकार और वार्तिककार के सूत्र की व्यवस्थापना करना शक्य नहीं है, कारण कि उनका सूत्रार्थ आगम और युक्ति से विरुद्ध है। अब यहाँ धर्मकीर्ति के दूषण को दिखाकर उसका परिहार करते हुए आचार्य कहते हैं जो धर्मकीर्ति कहता है कि शब्द को विनश्वर साध्य करने के लिए ऐन्द्रियकत्व हेतु का सामान्य पदार्थ के साथ व्यभिचार होने से ऐन्द्रियकत्व हेतु समीचीन नहीं है- इस प्रकार कहने वाला वह धर्मकीर्ति भी बुद्धिमान नहीं है (मूर्ख है) // 121 // क्योंकि ऐसा कहने पर उनका हेतु सिद्धसाधन दोष से युक्त हो जाता हैं। तथा प्रतिज्ञाहानि नामक दोष से भेद होने के कारण वादी का हेतु किसी भी कारण से उसके अव्यवहित काल में व्यभिचारी हो जाता है। इसलिए प्रतिज्ञाहानि दोष तो किसी-न-किसी कारण से है ही। परन्तु केवल प्रतिज्ञाहानि से ही किसी भी वादी का निग्रहस्थान कर देना युक्तिसंगत नहीं है॥१२२-१२४ // . जिनके सिद्धान्त में अनुमति के कथन करने में प्रतिज्ञा वाक्य प्रयोग करने योग्य माना गया है, उनके यहाँ प्रतिज्ञा की हानि भी निग्रहस्थान हो सकता है। किन्तु प्रतिवादी के द्वारा स्वकीय पक्ष की सिद्धि कर देने रूप प्रयोजन की सिद्धि कर देने पर वादी का निग्रह हो सकता है। अर्थात् प्रतिवादी के द्वारा स्वकीय सिद्धान्त अर्थ की समीचीन हेतु के द्वारा सिद्धि कर देने पर ही वादी का निग्रह होना संभव है, अन्यथा नहीं। अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि बिना वादी का निग्रह नहीं हो सकता। यह सिद्धान्त निश्चित है। क्योंकि स्वकीय पक्ष की सिद्धि ही जय है, यह कथन है॥१२५-१२६ / /
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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