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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 210 प्रतिदृष्टांत एवेति तद्धर्ममनुजानतः / स्वपक्षे स्यात्प्रतिज्ञानमिति न्यायाविरोधतः // 117 // सामान्यमैंद्रियं नित्यं यदिशब्दोपि तादृशः। नित्योस्त्विति ब्रुवाणस्यानित्यत्वत्यागनिश्चयात्॥११८॥ इत्येतच्च न युक्तं स्यादुद्योतकरजाड्यकृत् / प्रतिज्ञाहानिरित्थं तु यतस्तेनावधार्यते // 119 // सा हेत्वादिपरित्यागात् प्रतिपक्षप्रसाधना। प्रायः प्रतीयते वादे मंदबोधस्य वादिनः // 120 // यथाह उद्योतकर: दृष्टाश्चासावंते च व्यवस्थित इति दृष्टांतः स्वपक्षः, प्रतिदृष्टांत: प्रतिपक्षः प्रतिपक्षस्य धर्मं स्वपक्षेभ्यनुजानन् प्रतिज्ञा जहाति। यदि सामान्यमैंद्रियकं नित्यं शब्दोप्येवमस्त्विति तदेतदपि तस्य जाड्यकारि संलक्ष्यते / इत्थमेव प्रतिज्ञाहानेरवधारयितुमशक्तेः। प्रतिपक्षप्रसाधनाद्धि प्रतिज्ञायाः किल हानि: संपद्यते सा तु हेत्वादिपरित्यागादपि कस्यचिन्मंदबुद्धेर्वादिनो वादिप्रायेण प्रतीयते न पुनः प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेभ्यनुजानत एव येनायमेकप्रकारः प्रतिज्ञाहानौ स्यात्। तथा विक्षेपादिभिराकुलीभावात् प्रकृत्या समाभीरुत्वादन्यमनस्कत्वादेर्वा निमित्तात्। किंचित्साध्यत्वेन प्रतिज्ञाय तद्विपरीतं प्रतिजनिरुपलभ्यत एव भी नित्य हो सकता है। ऐसा कहने वाले वादी के शब्द के अनित्यत्व की प्रतिज्ञा का त्याग होता है। ऐसा निश्चय है। अर्थात् शब्द के अनित्यत्व की प्रतिज्ञा को छोड़ देने वाले वादी के प्रतिज्ञाहानि निग्रह-स्थान मानना चाहिए।११५-११८॥ जैनाचार्य कहते हैं कि - ऐसा कहना जाड्यकृत होने से (मूर्खता को प्रकट करने वाला होने से) उद्योतकर का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। जिस कारण से उद्योतकर के द्वारा इस प्रकार से प्रतिज्ञाहानि का होना नियमित किया जाता है, वह ठीक ही है। क्योंकि, हेतु, दृष्टान्त आदि के परित्याग से ही प्रतिज्ञा की हानि हो सकती है। प्रतिपक्षसाधना वही कहलाती है अर्थात् जब तक प्रतिवादी द्वारा स्वकीय प्रतिपक्ष की सिद्धि नहीं की जाएगी, तब तक वादी का निग्रह स्थान नहीं हो सकता। प्राय: बाद में मंदज्ञान वाले वादी की किसी कारण से वा अन्य किसी निमित्त से आतुर हो जाने से प्रतिज्ञा छूट जाती है, वह विपरीतता ग्रहण कर लेता है-ऐसा प्रतीत होता है। इसलिए नियम से उन नैयायिक आदि के द्वारा कहे गये वचन में सूत्र का अर्थ यथार्थ व्यवस्थित नहीं है। अर्थात् आप्त के वचन ही यथार्थ हैं // 119-121 // उद्योतकर कहता है कि दृष्ट है (विचारयुक्त है) वह अन्त (धर्म) जिसका वह दृष्टान्त कहलाता है। अर्थात् पक्ष के धर्म जिसमें दृष्टिगोचर होते हैं, वह दृष्टान्त कहलाता है। दृष्टान्त का अर्थ है-स्वपक्ष और प्रतिदृष्टान्त का अर्थ है प्रतिपक्ष। प्रतिपक्ष के धर्म को स्वपक्ष में स्वीकार करने वाला वादी स्वप्रतिज्ञा को छोड़ देता है। जैसे इन्द्रियज्ञान ग्राह्य जाति नित्य है - वैसे इन्द्रियज्ञान ग्राह्य होने से शब्द को भी नित्य स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार उद्योतकर के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि उद्योतकर का कथन उसके जाड्य को ही प्रकट कर रहा है। क्योंकि, इस प्रकार प्रतिज्ञाहानि का निश्चय करना शक्य नहीं है। प्रतिपक्ष की सिद्धि कर देने पर ही प्रतिज्ञा की हानि होती है। तथा यह हानि हेतु आदि के परित्याग से भी किसी-किसी मन्द बुद्धि वाले वादी के प्रायः करके वाद में प्रतीत हो जाता है। किन्तु फिर प्रतिपक्षी के धर्म को स्वपक्ष में स्वीकार कर लेने से ही प्रतिज्ञाहानि नहीं है जिससे कि प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रह स्थान में प्रतिपक्ष के धर्म
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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