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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 209 साध्यधर्मप्रत्यनीकधर्मेण प्रत्यवस्थितः प्रतिदृष्टांतधर्म स्वदृष्टांतेनुजानन् प्रतिज्ञां जहातीति प्रतिज्ञाहानिः / यथा अनित्यः शब्दः ऐंद्रियकत्वात् घटवदिति ब्रुवन् परेण दृष्टमैंद्रियकं सामान्यं नित्यं कस्मान्न तथा शब्द इत्येवं प्रत्यवस्थितः / प्रयुक्तस्य हेतोराभासतामवश्यमपि कथावसानमकुर्वन्निश्चयमतिलंघ्य प्रतिज्ञात्यागं करोति, यथेंद्रियकं सामान्यं नित्यं कामं घटोपि नित्योस्तु इति। स खल्वयं ससाधनस्य दृष्टांतस्य नित्यत्वं प्रसज्जनिगमांतमेव पक्षं च परित्यजन् प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात्पक्षस्येति भाष्यकारमतमालूनविस्तीर्णमादर्शितम्॥ प्रतिज्ञाहानिसूत्रस्य व्याख्यां वार्तिककृत्पुनः। करोत्येवं विरोधेन न्यायभाष्यकृतः स्फुटम् // 115 // दृष्टश्शांते स्थितश्चायमिति दृष्टांत उच्यते / स्वदृष्टांतः स्वपक्षः स्यात् प्रतिपक्षः पुनर्मतः॥११६॥ हो जाता है। इसलिए पक्ष के परित्याग की विशेषता न होने से भाष्यकार का नियम सुरक्षित कैसे रह सकता है अर्थात् जैसे हेतु आदि के त्याग से प्रतिज्ञा की हानि होने से निग्रह स्थान संभव है, इसलिए पक्ष के त्याग से ही प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रह स्थान होता है। यह नियम नहीं रह सकता है॥११३-११४॥ न्याय भाष्य का कथन भी है कि साध्य रूप धर्म के प्रत्यनीक (प्रतिकूल) धर्म के द्वारा प्रत्यवस्थान (दूषण) को प्राप्त हुआ वादी यदि प्रतिकूल दृष्टान्त के धर्म को स्वकीय दृष्टान्त में स्वीकार कर लेने की अनुमति दे देता है, तो वह अपनी पूर्व में की गई प्रतिज्ञा को छोड़ देता है। अत: यह वादी का प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रह स्थान है। जैसे घट के समान इन्द्रियजन्य ज्ञान के द्वारा ग्रहण करने योग्य होने से शब्द अनित्य है, इस प्रकार कहने वाला वादी प्रतिवादी के द्वारा इन्द्रियजन्य ज्ञान के द्वारा ग्राह्य सामान्य नित्य कहा गया है, देखा गया है, उस प्रकार शब्द नित्य क्यों नहीं है?" इस प्रकार दूषित किया गया है। इस प्रकार प्रतिवादी के द्वारा प्रयुक्त हेतु के व्यभिचार (हेत्वाभास) को जानता हुआ भी वाद कथा का अवसान (समाप्ति) नही करताहुआ वादी स्वकीय निश्चित पक्ष का उल्लंघन करके प्रतिज्ञा का त्याग कर देता है कि यदि इन्द्रियजन्य ज्ञान ग्राह्य सामान्य नित्य है तो घट भी इन्द्रियज्ञान ग्राह्य होने से नित्य हो जाओ? निश्चय से इस प्रकार कहने वाला वह वादी हेतु सहित दृष्टान्त के नित्यत्व का प्रसंग कराता हुआ (अर्थात् दृष्टान्त को नित्य मानता हुआ) और निगमन पर्यन्त पक्ष को छोड़ता हुआ प्रतिज्ञा का त्याग कर देता है। इसलिए कहा जाता है कि पक्ष के आश्रय प्रतिज्ञा है। इस प्रकार भाष्यकार के मन्तव्य को छिन्न, भिन्न करके (बिखेर कर) आचार्यदेव के द्वारा दिखाया गया है। न्याय वार्त्तिक ग्रन्थ के कर्ता उद्योतकर प्रतिज्ञाहानि के प्रतिपादक लक्षण सूत्र की व्याख्या न्यायभाष्य कृत का विरोध करके स्पष्ट रूप से इस प्रकार करते हैं कि दृष्ट अर्थात् विचार के अन्त में स्थित को दृष्टान्त कहते हैं। अर्थात् दृष्टान्त के अन्त में जो स्थित है यह दृष्टान्त कहा जाता है। अतः दृष्टान्त का अर्थ पक्ष है। स्वदृष्टान्त का अर्थ स्वपक्ष है, इसी प्रकार प्रतिदृष्टान्त का अर्थ प्रतिपक्ष माना गया है। इस प्रकार उस धर्म को नहीं जानता हुआ प्रतिपक्ष के धर्म को स्वपक्ष में स्वीकार करने वाले पुरुष के न्याय के अविरोध से इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेना है कि इन्द्रियग्राह्य सामान्य यदि नित्य है तो वैसा इन्द्रियग्राह्य होने से शब्द
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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