________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 212 परेण साधिते स्वार्थे नान्यथेति हि निश्चितं / स्वपक्षसिद्धिरेवात्र जय इत्यभिधानतः॥१२६॥ गम्यमाना प्रतिज्ञा न येषां तेषां च तत्क्षतिः / गम्यमानैव दोष: स्यादिति सर्वं समंजसम् // 127 // न हि वयं प्रतिज्ञाहानिर्दोष एव न भवतीति संगिरामहे अनैकांतिकत्वात् साधनदोषात् पश्चात् तद्भावात् ततो भेदेन प्रसिद्धेः / प्रतिज्ञां प्रयोज्यां सामर्थ्यगम्यां वा वदतस्तद्धानेस्तथैवाभ्युपगमनीयत्वात् सर्वथा तामनिच्छतो वादिन एवासंभवात् के वलमेतस्मादेव निमित्तात् प्रतिज्ञाहानिर्भवति प्रतिपक्षसिद्धिमंतरेण च कस्यचिन्निग्रहाधिकरणमित्येतन्न क्षम्यते तत्त्वव्यवस्थापयितुमशक्तेः॥ प्रतिज्ञांतरमिदानीमनुवदतिप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थस्य धर्मविकल्पतः। योसौ तदर्थनिर्देशस्तत्प्रतिज्ञांतरं किल // 128 // प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञांतरं तल्लक्षणसूत्रमनेनोक्तमिदं व्याचष्टे- .. जिनके सिद्धान्त में प्रतिज्ञा सामर्थ्य से जान ली जाती है- उनके प्रतिज्ञा की हानि नहीं होती है। जब प्रतिज्ञा गम्यमान है तब प्रतिज्ञा का हानिरूप दोष भी समंजस (समीचीन) है। अर्थात् प्रतिज्ञा गम्यमान होने पर प्रतिज्ञाहानि दोष भी गम्यमान होता है॥१२७॥ जैनाचार्य कहते हैं कि “प्रतिज्ञाहानि नामक दोष ही नहीं है"- ऐसा हम प्रतिज्ञापूर्वक नहीं कहते हैं, क्योंकि हेतु का दोष अनैकान्तिक होने से, पश्चात् प्रतिज्ञाहानि का सद्भाव होने से। परन्तु प्रतिज्ञा हानि अनैकान्तिक दोष से भिन्न प्रसिद्ध है। जो विद्वान प्रतिज्ञा को शब्द द्वारा प्रयोग करने योग्य वा शब्दों से नहीं कह कर अर्थापत्ति से गम्यमान कहते हैं, उनके यहाँ प्रतिज्ञा की हानि भी उसी प्रकार शब्द के द्वारा कहने योग्य वा अर्थापत्ति के द्वारा जानने योग्य स्वीकार कर लेना चाहिए। सर्वथा प्रतिज्ञा को नहीं मानने वाले वादी की असंभवता है। केवल इस निमित्त मात्र से प्रतिज्ञाहानि होती है। प्रतिवादी द्वारा प्रतिपक्ष की सिद्धि किये बिना जिस किसी भी उपाय से वादी का निग्रहस्थान करना क्षम्य नहीं है। क्योंकि ऐसी प्रक्रियाओं से तत्त्व व्यवस्था करना शक्य नहीं है। अर्थात् जिस किसी प्रकार से तत्त्व व्यवस्था नहीं हो सकती। अब प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान के सम्बन्ध में कहते हैं - प्रतिज्ञात अर्थ का निषेध करने पर धर्म के विकल्प से (पक्ष के विकल्प से) जो साध्य सिद्धि के लिए अर्थ का निर्देश किया जाता है। निश्चय से वह प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रह स्थान है॥१२८॥ ___ वादी द्वारा प्रतिज्ञात (स्वीकृत) अर्थ वा प्रतिवादी के द्वारा प्रतिषेध करने पर वादी उस दूषण को दूर करने की इच्छा से धर्मान्तर (पक्षान्तर) के विकल्प से प्रतिज्ञात अर्थ का अन्य विशेषण से विशिष्ट करके कथन करता है वह प्रतिज्ञान्तर है। अर्थात् जिस धर्म को कहने की प्रतिज्ञा की थी उसको पलट कर दूसरी प्रतिज्ञा कर लेना प्रतिज्ञान्तर है। यह नैयायिकों के गुरु गौतम ऋषि के द्वारा कथित प्रतिज्ञान्तर निग्रह स्थान का लक्षण है। इसी की विद्यानन्द आचार्य व्याख्या करते हैं