________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 203 सत्ये च साधने प्रोक्ते वादिना प्रतिवादिनः। दोषानुद्भावते च स्यान्न्यक्कारो वितथेपि वा॥७८॥ प्राच्ये पक्षेऽकलंकोक्तिद्धितीये लोकबाधिता। द्वयोर्हि पक्षसंसिद्ध्यभावे कस्य विनिग्रहः।७९॥ अत्रान्ये प्राहुरिष्टं नस्तथा निग्रहणं द्वयोः / तत्त्वज्ञानोक्तिसामर्थ्यशून्यत्वस्याविशेषतः॥८॥ यथोपात्तापरिज्ञानं साधनाभासवादिनः / तथा सद्दूषणाज्ञानं दोषानुद्भाविनः समं // 81 // वादी के द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि नहीं करने पर भी यदि दोषों का उत्थापन नहीं करना प्रतिवादी का निग्रह स्थान है तो ऐसा कहने वाला सौगत (बौद्ध) अपने जड़पने से छल, जाति आदिके वचन व्यवहार करने वाले मूर्ख नैयायिकों को जीत रहा है। भावार्थ - ज्ञान स्वरूप आत्मा को नहीं मानने वाले बौद्ध जड़ हैं (ज्ञान शून्य हैं) और ज्ञान से सर्वथा भिन्न आत्मा को मानने वाले नैयायिक भी जड़ हैं। ____किंच (दूसरी बात यह भी है) वादी के द्वारा समीचीन हेतु का कथन कर देने पर और प्रतिवादी के द्वारा दोषों का उत्थापन नहीं करने पर क्या प्रतिवादी का तिरस्कार (निग्रह स्थान) हो जाता है? अथवा वादी के द्वारा असत्य हेतु का कथन करने पर तथा प्रतिवादी के द्वारा उसमें दोषों का उद्भावन नहीं करने पर प्रतिवादी की पराजय होती है? प्रथम पक्ष में अकलंक देव का सिद्धान्त ही कह दिया जाता है अर्थात् वादी के द्वारा किये गये सत्य हेतु के प्रयोग में जब प्रतिवादी दोष नहीं उठा सकता तब प्रतिवादी की पराजय हो जाती है। यह स्याद्वादवेत्ता अकलंक देव का सिद्धान्त है। द्वितीय पक्ष को स्वीकार करने पर लोकबाधित होते हैं अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि के बिना प्रतिवादी का निग्रह करने पर लोकविरुद्ध होता है। क्योंकि दोनों के पक्षों की सिद्धि के अभाव में किसका निग्रह किया जा सकता है? अर्थात् किसी का भी नहीं। इसलिए वादी के द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि कर देने पर यदि प्रतिवादी उसका खण्डन नहीं कर सकता है तो प्रतिवादी की पराजय हो जाती है॥७८-७९॥ ___इस द्वितीय पक्ष (वादी के द्वारा सदोष हेतु के कहने पर भी यदि प्रतिवादी उसका खण्डन नहीं कर सकता तो प्रतिवादी की पराजय हो जाती है) के विषय में कोई विद्वान् कहते हैं कि इसमें वादी प्रतिवादी दोनों का निग्रहण (पराजय) होता है। यह कथन हमको इष्ट है। अर्थात् यदि वादी का हेतु समीचीन नहीं है और प्रतिवादी उसका खण्डन नहीं कर सकता तो वादी और प्रतिवादी दोनों की पराजय हो जाती है। क्योंकि तत्त्वज्ञान पूर्वक कथन करने के सामर्थ्य के शून्यत्व की दोनों में कोई विशेषता नहीं है अर्थात् वादी, प्रतिवादी दोनों का कथन तत्त्वार्थ के कथन से रहित है। जैसे हेत्वाभास वादी (असत्य हेतु का प्रयोग करने वाले) को ग्रहण किये गये स्वपक्ष का परिज्ञान नहीं है, उसी प्रकार असत्य (सदोष) हेतु में दोषों का उत्थापन नहीं करने वाले प्रतिवादी को भी समीचीन दूषण का ज्ञान नहीं है। इसलिए तत्त्वज्ञान से शून्य होने से दोनों ही समान हैं।८०-८१ // यदि कोई कहे कि सभा के भय से अथवा अन्य किन्हीं कारणों से प्रतिवादी दोषों को जानता हुआ भी वादी के दोषों का उद्भावन