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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 202 तस्यासिद्धत्वविच्छित्तिः फलं हेतोर्यथा तथा। निगमस्य प्रतिज्ञानाद्येकार्थत्वोपदर्शनम् // 75 // न हि प्रतिज्ञादीनामेकार्थत्वोपदर्शनमंतरेण संगतत्वमुपपद्यते भिन्नविषयप्रतिज्ञादिवत्। तथा प्रतिज्ञातः साध्यसिद्धौ हेत्वादिवचनमनर्थकं स्यादन्यथा तस्या न साधनांगतेति यदुक्तं तदपि स्वमतघातिधर्मकीर्तेरित्याह प्रतिज्ञातोर्थसिद्धौ स्याद्धत्वादिवचनं वृथा। नान्यथा साधनांगत्वं तस्या इति यथैव तत् // 76 // तत्त्वार्थनिश्चये हेतोदृष्टांतोऽनर्थको न किम् / सदृष्टान्तप्रयोगेषु प्रविभागमुदाहृताः // 77 // ततोतिविपरीतव्यतिरेकत्वं प्रदर्शितव्यतिरेकत्वमिति। न च वैधादृष्टांतदोषाः क्वचिन्यायविनिश्चयादौ प्रतिपाद्यानुरोधतः सदृष्टांतेषु सत्प्रयोगेषु सविभागमुदाहृता: न पुनः साधनांगत्वानियमात् / तदनुद्भावनं प्रतिवादिनो निग्रहाधिकरणं वादिना स्वपक्षस्यासाधनेपीति ब्रुवाणः सौगतो जडत्वेन जडानपि छलादिना व्यवहारतो नैयायिकान् जयेत्। किं च जिस प्रकार उपनय का फल हेतु के असिद्ध (असिद्ध हेत्वाभासपन) का विच्छेद करना है, उसी प्रकार निगमन का फल प्रतिज्ञा, हेतु आदि अनेक (चार) अवयवों का एक अर्थत्व (एक प्रयोजनत्व) को दिखाना है। अतः पाँचों अवयवों का कथन करना आवश्यक है। अन्यथा निग्रह स्थान होता है॥७५॥ क्योंकि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदिकों का एक ही अर्थ दिखाये बिना उनकी परस्पर में संगति नहीं हो सकती। जैसे पृथक्-पृथक् विषय को करने वाले प्रतिज्ञा आदि की संगति नहीं हो सकती। तथा, प्रतिपाद्य शिष्य के अनुरोध से पाँच या तीन अवयवों का कथन होता है। जैसे प्रतिज्ञा से साध्य की सिद्धि हो जाने पर हेतु, दृष्टान्त आदि का कथन करना अनर्थक (निष्प्रयोजन) है। अथवा (यदि प्रतिज्ञा वाक्य से साध्य सिद्धि नहीं मानेंगे तो) प्रतिज्ञा के साधन का अंगत्व सिद्ध नहीं हो सकेगा। इस प्रकार जो बौद्ध का कथन है, वह भी बौद्ध मतानुयायी धर्मकीर्ति के स्वमत का घातक ही है। इसी कथन को स्पष्ट करने के लिए विद्यानन्द आचार्य कहते हैं प्रतिज्ञा वाक्य से ही अर्थ की सिद्धि हो जाने पर पुन: हेतु आदि का वचन करना वृथा (निष्प्रयोजन) होगा। अन्यथा उस प्रतिज्ञा वाक्य के साध्य सिद्धि का अंगपना घटित नहीं होगा। इस प्रकार जैसा बौद्ध कहता है उसी प्रकार हम भी कह सकते हैं कि हेतु के द्वारा तत्त्वार्थ का निश्चय हो जाने पर पुनः दृष्टान्त का कथन करना व्यर्थ क्यों नहीं होगा? परन्तु समीचीन दृष्टान्तों के प्रयोग में विभाग कहा गया है अर्थात् दृष्टान्त के प्रयोग में साधर्म्य और वैधर्म्यपना कहा गया है॥७६-७७॥ तथा वैधर्म्य दृष्टान्त का निरूपण करने के लिए व्यतिरेक दिखलाना पड़ता है। उस साध्य रूप अर्थ से अतिरिक्त विपरीत के साथ व्यतिरेकपना दिखलाना ही व्यतिरेकत्व है। इस प्रकार दिये गये वैधर्म्य दृष्टान्त के दोष किन्हीं "न्याय विनिश्चय, जल्पनिर्णय" आदि ग्रन्थों में शिष्यों के अनुरोध से दृष्टान्त सहित समीचीन प्रयोगों में साधर्म्य और वैधर्म्य का विभाग नहीं कहा गया है। किन्तु साधन के अंग के अनियम से उन दोषों का निरूपण नहीं किया है। अर्थात् अकलंक देव ने वैधर्म्य दृष्टान्त या साधर्म्य दृष्टान्त का कथन करना बतलाया है तथा उनके दोषों का भी निरूपण किया है। यह साधनांगत्व के अनियम से व्यवस्था नहीं की गई है। तथा शिष्यों के अनुरोध से कितने भी अंगों का कथन किया जा सकता है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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