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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 201 ननु च न सौगतस्य पंचावयवसाधनस्य तत्समर्थनस्य वाऽवचनं निग्रहस्थानं तत्र निगमनांतसामर्थ्यादम्यमानत्वात् तद्वचनस्य पुनरुक्तत्वेनाफलत्वादित्यपि न संगतमित्याह सामर्थ्यागम्यमानस्य निगमस्य वचो यथा। पक्षधर्मोपसंहारवचनं च तथाऽफलम् // 74 // ननु च सपक्षधर्मोपसंहारस्य सामर्थ्याद्गम्यमानस्यापि हेतोरपक्षधर्मत्वेनासिद्धत्वस्य व्यवच्छेदः फलमस्तीति युक्तं तद्वचनमनुमन्यते यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकं यथा घटः संश्च शब्द इति। तर्हि निगमनस्यापि प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयानामेकार्थत्वोपदर्शनं फलमस्ति तत्तद्वचनमपि युक्तिमदेवेत्याह भावार्थ - पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्ष व्यावृत्ति, अबाधित विषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व-इन पाँच अवयवों से सहित हेतु का कथन नहीं करना नैयायिकों के कथनानुसार भी निग्रह स्थान है। वैसे ही बौद्धों का कहना भी निग्रह स्थान है। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। शंका - पाँच अवयव वाले हेतु का अथवा उसके समर्थन का कथन नहीं करना कोई बौद्ध का निग्रह स्थान नहीं है। क्योंकि वहाँ निगमन पर्यन्त अवयवों का बिना कहे हेतु की सामर्थ्य से ही अर्थापत्ति द्वारा ज्ञान कर लिया जाता है। उस गम्यमान का भी यदि कथन किया जायेगा तो पुनरुक्त हो जाने के कारण वह निष्फल होगा। : समाधान - जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों का यह कहना भी सुसंगत नहीं है। इसी को आचार्य कहते हैं जिस प्रकार हेतु के सामर्थ्य से गम्यमान निगमन रूप अवयव का कथन करना निष्फल है उसी प्रकार पक्ष में स्थित हेतु के उपसंहार रूप उपनय का कथन करना भी निष्फल है। अर्थात् जैसे गम्यमान निगमन का कथन करना नैयायिकों के निष्फल है उसी प्रकार गम्यमान उपसंहार का कथन करना बौद्धों के सिद्धान्त में भी निष्फल होगा // 74 // शंका - यद्यपि पक्ष धर्म के उपसंहार रूप उपनय का कथन नहीं करने पर भी सामर्थ्य से ज्ञान कर लिया जाता है, तथापि किसी को पक्ष में वृत्तिपना नहीं होने के कारण हेतु के स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासपने की शंका हो जाने पर उस असिद्धित्व का व्यवच्छेदन में उपनय कथन का फल विद्यमान है। इसलिए उस पक्षधर्मोपसंहार का कथन करना युक्त माना जाता है। जैसे “जो सत् है वह सर्व क्षणिक है" जैसे-घट / शब्द भी सत् है, इसलिए क्षणिक है। वह उपनय वाक्य है। उस उपनय का कथन करने से हेतु का पक्ष में ठहरने के कारण स्वरूपसिद्धिका व्यवच्छेद हो जाता है। ___समाधान - इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं - कि निगमन नामक पाँचवें अवयव का कथन नहीं करने पर भी यद्यपि उसका ज्ञान हो जाता है, फिर भी प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय इन चारों का एक ही साध्य विषय की साधना रूप प्रयोजन को दिखाना निगमन का फल है। अत: निगमन का कथन करना भी युक्तिसंगत है। इसी को श्रीविद्यानन्द आचार्य कहते हैं
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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