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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 200 विरुद्धसाधनोद्भावी प्रतिवादीतरं जयेत् / तथा स्वपक्षसंसिद्धेर्विधानं तेन तत्त्वतः // 7 // दूषणांतरमुद्भाव्य स्वपक्षं साधयन् स्वयं / जयत्येवान्यथा तस्य न जयो न पराजयः // 71 // यच्च धर्मकीर्तिनाभ्यधायि साधनं सिद्धिस्तदंगं त्रिरूपं लिंग तस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थान। तथा साधनस्य त्रिरूपलिंगस्याङ्गं समर्थनं व्यतिरेकनिश्चयनिरूपणत्वात्, तस्य विपक्षे बाधकप्रमाणवचनस्य हेतोः समर्थनत्वात् तस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानमिति च तन्नैयायिकस्यापि समानमित्याह स्वेष्टार्थसिद्धरंगस्य त्र्यंशहेतोरभाषणं / तस्यासमर्थनं चापि वादिनो निग्रहो यथा // 72 // पंचावयवलिंगस्याभाषणं न तथैव किम् / तस्यासमर्थनं चापि सर्वथाप्यविशेषतः // 73 // इसलिए वादी को अपने पक्ष की सिद्धि का विधान वास्तव रूप से करना अत्यावश्यक है अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि किये बिना विजय प्राप्त नहीं हो सकती॥७०॥ _ वादी के हेतु में दूषणों का उद्भावन करके स्वपक्ष की सिद्धि करने वाला प्रतिवादी वादी को जीत लेता है। अन्यथा (स्वपक्ष को सिद्ध नहीं करने वाले) प्रतिवादी की न विजय होती है और न पराजय // 7 // तथा बौद्धमतानुयायी धर्मकीर्ति ने यह कहा था कि साधन की सिद्धि का कारण तीन रूप वाला ज्ञापक हेतु है। उस तीन रूप लिंग (हेतु) का कथन नहीं करना ही वादी का निग्रह स्थान है। भावार्थ - पक्ष धर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति - ये तीन अंग हेतु के माने गये हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, ये अनुमान के तीन अंग हैं। वादी यदि स्वपक्षसिद्धि के लिए तीन रूप वाले हेतु का कथन नहीं करेगा, तो वह निग्रह स्थान का पात्र होगा। ___ अथवा “असाधनांग" वचन का दूसरा अर्थ यह भी है कि साधन तीन रूप वाले लिंग का अंग समर्थन व्यतिरेक के निश्चय का निरूपण करने से होता है। अथवा उस हेतु के विपक्ष में बाधक प्रमाण वचन को समर्थन कहते हैं। अर्थात् हेतु वचन का विपक्ष में बाधक होना ही समर्थन है। उस समर्थन वचन का कथन नहीं करना ही वादी का निग्रह स्थान है। ____ साध्य के अभाव में हेतु के अभाव का कथन करना व्यतिरेक है। हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति को सिद्ध करके धर्मी में उस हेतु का सद्भाव सिद्ध करना समर्थन है। यह अन्वय मुख से समर्थन है और व्यतिरेक के निश्चय का निरूपण करने से विपक्ष में बाधक प्रमाण का कथन करना ही व्यतिरेक मुख से समर्थन है। यदि वादी व्यतिरेक मुख से समर्थन का निरूपण नहीं करता है तो वादी का निगह स्थान है। इस प्रकार बौद्ध मतावलम्बी धर्मकीर्ति के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि यह नैयायिक के कथन के समान ही है। इसी का विद्यानन्द आचार्य स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि - जिस प्रकार स्वकीय इष्ट अर्थ की सिद्धि के अंग तीन अंश वाले हेतु का कथन नहीं करना तथा उस तीन अंश वाले हेतु का समर्थन नहीं करना वादी का निग्रह स्थान है, उसी प्रकार नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत पाँच अवयव वाले हेतु का कथन नहीं करना तथा पाँच अवयव वाले हेतु का समर्थन नहीं करना क्या वादी का निग्रह स्थान नहीं है? अवश्य ही है। क्योंकि तीन अंश वाले और पाँच्न अंश वाले हेतु में सर्वथा अविशेषता है अर्थात् दोनों में समानता है।।७२-७३ / /
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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