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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 204 जानतोपि सभाभीतेरन्यतो वा कुतश्चन / दोषानुद्भावनं यद्वत्साधनाभासवाक् तथा // 82 // दोषानुद्भावने तु स्याद्वादिना प्रतिवादिने। परस्य निग्रहस्तेन निराकरणतः स्फुटम् // 83 // अन्योन्यशक्तिनिर्घातापेक्षया हि जयेतरः / व्यवस्था वादिनोः सिद्धाः नान्यथातिप्रसंगतः 84 // इत्येतदुर्विदग्धत्वे चेष्टितं प्रकटं न तु। वादिनः कीर्तिकारि स्यादेवं माध्यस्थहानितः // 5 // दोषानुद्भावनाख्यानाद्यथा परनिराकृतिः। तथैव वादिना स्वस्य दृष्टवान् का तिरस्कृतिः // 86 // दोषानुद्भावनादेकं न्यक् कुर्वति सभासदः। साधनानुक्तितो नान्यमित्यहो तेऽतिसजनाः // 87 // नहीं करता है तो हम भी कह सकते हैं कि निर्दोष हेतु को जानता हुआ भी वादी सभा के भय से वा किन्हीं अन्य कारणों से हेत्वाभास का प्रयोग करता है। इस प्रकार दोनों के ही तत्त्व ज्ञान पूर्वक कथन करने का सामर्थ्य सिद्ध नहीं हो रहा है।८२॥ वादी के द्वारा प्रतिवादी के प्रति दोषों का उद्भावन नहीं करने पर दूसरे का निग्रह स्पष्ट रूप से परपक्ष का निराकरण करने से हो ही जाता है, अन्यथा नहीं। अत: परस्पर में एक दूसरे की शक्ति का विघात करने की अपेक्षा से ही वादी और प्रतिवादी के जय, पराजय की व्यवस्था सिद्ध है। अन्यथा अतिप्रसंग दोष होने से जय पराजय की व्यवस्था नहीं है। अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करना ही वादी या प्रतिवादी की विजय है। स्वपक्ष की सिद्धि के बिना विजय प्राप्त नहीं हो सकती। यदि स्वपक्ष सिद्धि और . परपक्ष के निराकरण के बिना ही जय पराजय मानेंगे तो अतिप्रसंग दोष आयेगा॥८३-८४॥. . __अब जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कथन करना स्वकीय मूर्खता की चेष्टा को प्रकट करना है; स्व का दुर्विदग्धपना प्रकट करना है। किसी भी उपाय से प्रतिवादी की शक्ति का विघात करने का प्रयत्न करना वादी की कीर्ति (को करने वाला) नहीं है। क्योंकि इस प्रकार का निंदनीय कार्य करने से अन्य सभ्य पुरुषों के माध्यस्थ भाव की हानि होती है।८५॥ जिस प्रकार प्रतिवादी के द्वारा दोषों का उत्थापन नहीं करने पर प्रतिवादी का निराकरण हो जाता है (प्रतिवादी की पराजय हो जाती है), उसी प्रकार समीचीन हेतु का प्रयोग नहीं करने पर वादी के द्वारा स्वकीय तिरस्कार क्यों नहीं देखा जाता है? अर्थात् समीचीन हेतु का प्रयोग नहीं करने पर वादी का तिरस्कार क्यों नहीं होगा? // 86 // सभासद दोषों का उत्थापन नहीं करने पर वादी और प्रतिवादी में से एक प्रतिवादी का तिरस्कार (निग्रह स्थान) कर देते हैं। परन्तु समीचीन साधन का कथन नहीं करने से वादी का तिरस्कार (पराजय) नहीं करते हैं। अहो! वे सभासद आवश्यकता से भी अधिक सज्जन हैं अर्थात् सदोष हेतु को कहने वाले वादी का निग्रह नहीं करके केवल सदोष हेतु में दोषों का उद्भावन नहीं करने वाले प्रतिवादी का ही निराकरण करते हैं, वे सभासद न्याय को नहीं जानते हैं॥८७।। 1. मिथ्या आग्रहवश स्वकीय असत्य पक्ष के अभिमान से सत्य पक्ष को ग्रहण नहीं करना दुर्विदग्धपना है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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