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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*८ क्षयोपशमनिमित्त एव शेषाणामित्यवधारणाद्भवप्रत्ययत्वव्युदासः / शेषाणामेव क्षयोपशमनिमित्त इति देवनारकाणां नियमात्ततो नोभयथाप्यवधारणे दोषोऽस्ति / क्षयोपशमनिमित्तोऽवधिः शेषाणामित्युभयत्रानवधारणाच नाविशेषतोऽवधिस्तिर्यङ्मनुष्याणामन्तरङ्गस्य तस्य कारणस्य विशेषात् / तथा पूर्वत्रानवधारणाद्बहिरंगकारणाव्यवच्छेदः। परत्रानवधारणाद्देवनारकाव्यवच्छेदः प्रसिद्धो भवति॥ षड्विकल्पः समस्तानां भेदानामुपसंग्रहात्। परमागमसिद्धानां युक्त्या सम्भावितात्मनाम् // 10 // अनुगाम्यननुगामी वर्द्धमानो हीयमानोऽवस्थितोऽनवस्थित इति षड्विकल्पोऽवधिः अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमस्वरूप अंतरंगकारण को हेतु मानकर अवधिज्ञान होता है। इस प्रकार कहने पर सामान्यरूप से सभी मनुष्य तिर्यंचों के अवधिज्ञान के सद्भाव का निषेध सिद्ध हो जाता है। किन्तु जिन जीवों के अंतरंगकारण क्षयोपशम होगा, उन्हीं के अवधिज्ञान का सद्भाव पाया जाएगा, अन्यों के नहीं। ऐसा जान लिया जाता है॥९॥ शेष बचे हुए मनुष्य तिर्यंचों के तो बहिरंगकारण क्षयोपशम को ही निमित्तं मान कर अवधिज्ञान होता है। इस प्रकार अवधारण करने से शेष जीवों के अवधिज्ञान में भवप्रत्ययपने की व्यावृत्ति हो जाती है और शेष जीवों के क्षयोपशमनिमित्त अवधि होती है। इस प्रकार नियम करने से देवनारकियों के अवधिज्ञान में / गुणप्रत्ययपने का व्यवच्छेद हो जाता है। इस प्रकार दोनों प्रकार-उद्देश्य और विधेय से अवधारण करने पर कोई दोष नहीं आता है; प्रत्युत गुण ही है। तथा शेष जीवों के अवधिज्ञान क्षयोपशम को निमित्त पाकर होता है। इस प्रकार दोनों ही प्रकार से अवधारण नहीं करने से सभी अवधिज्ञानी तिर्यंच और मनुष्यों को विशेषताओं से रहित एकसा अवधि ज्ञान नहीं हो पाता है, क्योंकि उस अवधिज्ञान के अंतरंगकारण ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की प्रत्येक जीव में विशेषताएँ हैं। पहले दल में अवधारण नहीं करने से बहिरंगकारणों का व्यवच्छेद नहीं हो सकता है। अत: एवकार लगा दिया जाता तो बहिरंग कारण का भी व्यवच्छेद हो जाता। किन्तु गुण को बहिरंगकारण इस सूत्र द्वारा अवश्य कहना है। अत: पहले दल में तथा उत्तरदल में अवधारण नहीं करने से देव और नारकियों का व्यवच्छेद नहीं होता है। भावार्थ - शेष रहे मनुष्य, तिर्यंचों के समान देव, नारकियों के भी अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम अंतरंग कारण है अत: दोनों ओर अवधारण नहीं करने से भी प्रमेय का लाभ होता है। सर्वज्ञकथित परमागम में प्रसिद्ध और पूर्वोक्त युक्तियों से सम्भावितस्वरूप, देशावधि आदि सम्पूर्ण भेदों का संग्रह हो जाने से अवधिज्ञान के अनुगामी आदिक छह विकल्प हैं। अवधिज्ञान के अन्य भेद प्रभेदों का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है॥१०॥ अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित - इस प्रकार अवधिज्ञान छह प्रकार का है। अर्थात् कोई अवधिज्ञान सूर्य के प्रकाश के समान भवान्तर में जाने वाले के पीछे जाता है वह अनुगामो है। मूर्ख के प्रश्न के समान वहीं गिर जाता है- भवान्तर में साथ नहीं जाता है वह
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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