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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *9 संप्रतिपाताप्रतिपातयोरत्रैवान्तर्भावात् / देशावधिः परमावधिः सर्वावधिरिति च परमागमप्रसिद्धानां पूर्वोक्तयुक्त्या सम्भावितानामत्रोपसंग्रहात्। कुतः पुनरवधिः कश्चिदनुगामी कश्चिदन्यथा सम्भवतीत्याह विशुद्ध्यनुगमात्पुंसोऽनुगामी देशतोऽवधिः। परमावधिरप्युक्तः सर्वावधिरपीदृशः // 11 // विशुद्ध्यनन्वयादेशोऽननुगामी च कस्यचित् / तद्भवापेक्षया प्राच्यः शेषोऽन्यभववीक्षया // 12 // अननुगामी है। सम्यग्दर्शनादि गुणों की विशुद्धि के कारण अरणी के निर्मथन से उत्पन्न शुष्क पत्रों से उपचीयमान ईंधन के समूह में वृद्धिंगत अग्नि के समान बढ़ता रहता है वह वर्द्धमान अवधिज्ञान है। वह असंख्यात लोक परिमाण तक बढ़ता रहता है। जो ईंधन रहित अग्नि के समान, जिस परिमाण से उत्पन्न हुआ था, उससे प्रतिदिन सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि, संक्लेश परिणाम की वृद्धि के योग से अंगुल के असंख्यात भाग तक घटता रहे वह हीयमान अवधिज्ञान है। सम्यग्दर्शनादि गुणों के अवस्थान से अवधिज्ञान मुक्तिप्राप्ति या केवलज्ञानपर्यन्त जैसा का तैसा बना रहे अर्थात् न घटे न बढ़े, वह अवस्थित अवधिज्ञान है जैसे तिलादि चिह्न न घटते हैं और न बढ़ते हैं। जिस परिमाण में उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों की वृद्धि एवं हानि के कारण वायु से प्रेरित जल की तरंगों के समान जहाँ तक घट सकता है वहाँ तक घटता रहे और जहाँ तक बढ़ सकता है, वहाँ तक बढ़ता रहे, वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। इस प्रकार अवधिज्ञान के छह विकल्प होते हैं। प्रतिपात और अप्रतिपात इन दो भेदों का इन्हीं छह भेदों में अन्तर्भाव हो जाता है। बिजली के प्रकाश समान प्रतिपात होने वाला प्रतिपाती है और गुणश्रेणी से नहीं गिरने वाला ज्ञान अप्रतिपाती ... देशावधि, परमावधि और सर्वावधि, इस प्रकार परमदेवाधिदेव अहँतसर्वज्ञ की आम्नाय से आगम में प्रसिद्ध भेदों का भी इन्हीं भेदों में यथायोग्य संग्रह हो जाता है। अतीन्द्रिय पदार्थों को साधने वाली पूर्वमें कही गई युक्तियों से देशावधि आदि भेदों की सम्भावना की जा चुकी है। चरमशरीरी मुनिमहाराज के परमावधि और सर्वावधि ज्ञान होते हैं। फिर कोई तो अवधिज्ञान अनुगामी होता है और कोई उसके भेद अन्य प्रकार से यानी अवस्थित, अनवस्थित आदि रूप होते हैं। इसका क्या कारण है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं .. आत्मा के अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विशुद्धि का अनुगम करने से एकदेश से देशावधि भी अनुगामी हो जाती है और परमावधि भी सूर्यप्रकाश समान आत्मा का अनुगम करने वाली अनुगामी मानी गई है, तथा इसी प्रकार सर्वावधि भी अनुगामी होती है अर्थात्-तीनों प्रकार की अवधियों का भेद अनुगामी है। इस प्रकार हेतुपूर्वक सिद्धि कर दी गई है॥११॥ . क्षयोपशमजन्य आत्मप्रसादस्वरूप विशुद्धि का अन्वयरूप करके गमन नहीं करने से यह अवधि किसी-किसी जीव के अननुगामी होती है। उन तीन प्रकार के अवधिज्ञानों में पहला देशावधिज्ञान तो उसी भव की अपेक्षा से अननुगामी कहा जाता है। अर्थात्-किसी-किसी जीव के देशावधिज्ञान उस स्थान से अन्य स्थान पर नहीं जाता है। या उस जन्म से दूसरे जन्म में साथ नहीं जाता है। तथा चरमशरीरी संयमी के पाये जाने वाले शेष बचे हुए परमावधि और सर्वावधि तो अन्य भव की अपेक्षा से अननुगामी हैं। अर्थात्सर्वावधि परमावधि ज्ञानियों की उसी भव में मोक्ष हो जाने के कारण अन्य भवों का धारण नहीं होने से वे दो अवधिज्ञान अननुगामी हैं // 12 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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