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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 7 चावसीयते। वक्ष्यमाणे च मन:पर्यये स एव तदावरणापेक्षयेति सूत्रितं भवति / मुख्यस्य शब्दस्याश्रयणात्सर्वत्र बहिरंगकारणप्रतिपादनाच्च मुख्यगौणशब्दप्रयोगो युक्तोऽन्यथा गुणप्रत्ययस्यावधेरप्रतिपत्तेः। के पुनः शेषा इत्याहशेषा मनष्यतिर्यञ्चो वक्ष्यमाणाः प्रपंचतः। ते यतः प्रतिपत्तव्या गतिनामाभिधाश्रयाः॥७॥ स्यात्तेषामवधिर्बाह्यगुणहेतुरितीरणात् / भवहेतुर्न सोऽस्तीति सामर्थ्यादवधार्यते // 8 // तेषामेवेति निर्णीतेर्देवनारकविच्छिदा। क्षयोपशमहेतुः सन्नित्युक्ते नाविशेषतः॥९॥ गये श्रुतज्ञान में तथा उसके भी पूर्व में कहे गये मतिज्ञान में भी अंतरंगकारण क्षयोपशम का निर्णय कर लिया गया है। तथा, आगे ग्रन्थ में कहे जाने वाले मनःपर्यय ज्ञान में भी उस मनःपर्ययावरण कर्म की अपेक्षा से उत्पन्न हुआ वह क्षयोपशम ही अन्तरंग कारण है। परन्तु यहाँ विशेषतया संयम की अपेक्षा है। . मुख्य क्षयोपशम शब्द का आश्रय कर लेने और सभी ज्ञानों में बहिरंगकारणों का प्रतिपादन करने से यहाँ मुख्य शब्द का प्रयोग और गौण शब्द का प्रयोग करना युक्तिसहित है अर्थात्-मुख्य शब्द का आश्रय करने से सब ज्ञानों के अन्तरंग कारणों का निर्णय हो जाता है और उपचरित क्षयोपशम शब्द के प्रयोग कर देने से मनुष्य तिर्यंचों की अवधि का बहिरंग कारण प्रतीत हो जाता है। अन्यथा (यानी) उपचरित शब्द का प्रयोग किये बिना क्षायिकसंयम आदि गुणस्वरूप बहिरंग कारणों से उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान की प्रतीति नहीं हो सकती थी। * इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्य ने इस सूत्र के बहिरंग कारणों को प्रतिपादन करने वाला भाष्यअर्थ कर दिया है। यह सूत्र गुणप्रत्यय अवधि के बहिरंग कारण और चारों ज्ञानों के अन्तरङ्गकारण का भी प्रतिपादक है। ___इस सूत्र में कहे गये वे शेष जीव फिर कौन हैं जिनके गुणप्रत्यय अवधि होती है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं __पूर्व सूत्र में कहे गये देव और नारकियों से अवशेष मनुष्य और तिर्यंच यहाँ शेष पद से लिये गये हैं। अग्रिम अध्यायों में विस्तार से मनुष्य और तिर्यंचों का कथन करेंगे। मनुष्य और तिर्यंच अपने योग्य मनुष्यगति और तिर्यंचगतिनामक नामकर्म के उदय से भिन्न भिन्न संज्ञाओं का आश्रय लेते हैं। गति नामक प्रकृति के उत्तर भेद अनेक हैं। अत: उस-उस गतिकर्म के अनुसार जीव मनुष्यों और तिर्यंचों को समझ लेना चाहिए // 7 // उन कतिपय मनुष्य तिर्यंचों के अवधिज्ञान का बहिरंग कारण संयम आदि गुण हैं। इस प्रकार नियम कर कथन कर देने से उनके वह भवप्रत्यय अवधि नहीं है, यह मन्तव्य बिना कहे ही वचन के सामर्थ्य से अवधारित कर लिया जाता है, क्योंकि "क्षयोपशमनिमित्त एव शेषाणाम्" - इस प्रकार पहला एवकार अवधारण कर देने से शेषों के अवधिज्ञान में भव का बहिरंगकारणपना निषिद्ध हो जाता है॥८॥ ___ “शेषाणामेव क्षयोपशमनिमित्तः" - उन शेषों के ही गुण प्रत्यय अवधि होती है। इस प्रकार एवकार द्वारा उत्तरवर्ती निर्णय (नियम) कर देने से देव और नारक जीवों का व्यवच्छेद कर दिया जाता है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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