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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 193 जयतीतरः। ‘आभासांतरमुद्भाव्य पक्षसिद्धिमपेक्षते // " इति। न चैवमष्टांगो वादः स्यात्तत्साधनतद्वचनयोर्वादिसामर्थ्यरूपत्वात् सदूषणतद्वचनयोश्च प्रतिवादिसामर्थ्यरूपत्वादिगंतरत्वायोगात् नैवं प्रभुः सभ्यो वा वादिप्रतिवादिनोः सामर्थ्यं तयोः स्वतंत्रत्वात् / ततो नाभिमानिकोपि वादो व्यंग एव वीतरागवादवदिति शक्यं वक्तुं, चतुर्णामंगानामन्यतमस्याप्यपाये अर्थापरिसमाप्तेरित्युक्तप्रायं / एवमयमाभिमानिको वादो जिगीषतोर्द्विविध इत्याह इत्याभिमानिकः प्रोक्तस्तात्त्विकः प्रातिभोपि वा। समर्थवचनं वादश्चतुरंगो जिगीषतोः॥४५॥ करता हुआ ही वादी के पक्ष का हेत्वाभासों के द्वारा खण्डन कर उसे जीत सकता है, अन्यथा नहीं। सो ही ग्रन्थों में लिखा है - प्रतिवादी विद्वान् विरुद्ध हेतुओं का उद्भावन कर वा अन्य हेत्वाभासों का कथन कर वादी को जीत लेता है। परन्तु इसमें प्रतिवादी के निज पक्ष की सिद्धि की अपेक्षा आवश्यक है। निज पक्ष की सिद्धि के बिना दोषों का उद्भावन करना पक्षघातिता नहीं है। - सभापति, सभ्य, वादी, प्रतिवादी, वादी का समर्थ साधन, वादी द्वारा अविनाभावी हेतु का कहना, प्रतिवादी के द्वारा समीचीन दोषों का उत्थापन और प्रतिपक्ष विघातक दूषण का कथन, ये वाद के आठ अंग हैं। यह आठ अंग वाला वाद किसी ने भी स्वीकार नहीं किया है। क्योंकि उस वादी के समर्थ साधन का कथन करना और अन्यथा अनुपपत्ति रूप हेतु का प्रयोग करना-ये दोनों वादी के सामर्थ्य स्वरूप पदार्थ हैं। अत: वादी नामक अंग में ये दोनों गर्भित हो जाते हैं। तथा समीचीन दोषों को उठाना और उस प्रतिपक्ष विघातक दूषण का कथन करना, ये दोनों प्रतिवादी के सामर्थ्य स्वरूप हैं। अतः प्रतिवादी नामक अंग में ये दोनों गर्भित हो जाते हैं। इसलिए वाद के चार ही अंग हैं। इन चार अंगों के अतिरिक्त अन्य अंगों का उपदेश देने या संकेत करने का अभाव है। वाद के दो अंग हैं, इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। क्योंकि सभ्य और सभापति दोनों स्वतंत्र शक्तिशाली पदार्थ हैं। वे वादी और प्रतिवादी के आधीन नहीं हैं। इसलिए अभिमान की प्रेरणा से प्रवर्त रहा भी वाद वादी, प्रतिवादी इन दो अंगों वाला है ऐसा नहीं कह सकते। जैसे वीतराग पुरुषों में होने वाला वाद (संवाद) दो अंग वाला होता है उस प्रकार जीतने की इच्छा रखने वाले पुरुषों का वाद दो अंग वाला नहीं है। अर्थात् वीतराग संवाद में जैसे वादी और प्रतिवादी दो अंग हैं उसी प्रकार वाद में दो अंग हैं- ऐसा कहना शक्य नहीं है। वाद चार अंग वाला ही है क्योंकि वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति, इन चार अंगों में से किसी भी एक अंग का अभाव हो जाने पर प्रयोजन-सिद्धि की परिपूर्णता नहीं हो सकती है। इस बात को पूर्व में बहुत बार कह दिया गया है। , इस प्रकार जीतने की इच्छा रखने वालों का अभिमान से प्रयुक्त किया गया वाद दो प्रकार का है। इस बात को आचार्य कहते हैं - (इस प्रकार) जीतने की इच्छा रखने वाले विद्वानों का समर्थ हेतु या समर्थ दूषण का कथन करना रूप वाद चार अंग वाला है और वह वाद अभिमान से प्रयुक्त किया गया है। तात्त्विक और प्रतिभा के भेद से वह वाद दो प्रकार का है॥४५॥ . जिसमें तत्त्वों का निर्णय किया जाता है वह वाद तात्त्विक है। तथा अपनी प्रतिभा को बढ़ाने के लिए जो वाद होता है अथवा जिससे अपनी बुद्धि के द्वारा इष्ट, अनिष्ट की सिद्धि की जाती है, वह वाद प्रातिभ कहा जाता है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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