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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 194 पूर्वाचार्योपि भगवानमुमेव द्विविधं जल्पमावेदितवानित्याहद्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् / त्रिषष्टेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये // 46 // कः पुनर्जयोत्रेत्याहतत्रेह तात्त्विके वादेऽकलंकैः कथितो जयः। स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः॥४७॥ कथं ? स्वपक्षसिद्धिपर्यंता शास्त्रीयार्थविचारणा / वस्त्वाश्रयत्वतो यद्वल्लौकिकार्थे विचारणा // 48 // कः पुनः स्वस्य पक्षो यत्सिद्धिर्जयः स्यादिति विचारयितुमुपक्रमतेजिज्ञासितविशेषोत्र धर्मी पक्षो न युज्यते / तस्यासंभवदोषेण बाधितत्वात्खपुष्पवत् // 49 // पूर्व में आचार्य ने भी उस जल्प नामक वाद को दो प्रकार का कहा है। उसी को आचार्य कहते त्रेसठ वादियों को जीतने वाले श्रीदत्त आचार्य ने स्वरचित जल्पनिर्णय नामक ग्रन्थ में तात्त्विक और प्रतिभा गोचर जल्प दो प्रकार का कहा है। अर्थात् तत्त्वों को विषय करने वाला जल्प तात्त्विक है और नवीन अर्थों की युक्तियों के उद्बोध को कराने वाली प्रतिभा बुद्धि से होने वाला जल्प प्रातिभ है॥४६॥ ____ जय क्या पदार्थ है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं कि उन दोनों प्रकारों के वादों में से इस तात्त्विक वाद में श्री अकलंक देव ने जय व्यवस्था इस प्रकार कही है कि वादी और प्रतिवादी में से किसी एक के निज पक्ष की सिद्धि हो जाना ही अन्य वादी का निग्रह है। अर्थात् अन्य वादी का निग्रह करना ही स्वपक्ष की सिद्धि है। स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष के निग्रह करने को ही जय कहते हैं॥४७॥ स्वपक्ष की सिद्धि से अन्य वादी का निग्रह कैसे होता है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं - जैसे लौकिक अर्थों का विचार करना वस्तु के आश्रय से होता है, वैसे ही शास्त्रीय अर्थों की विचारणा स्वपक्ष सिद्धि पर्यन्त होती है। अर्थात् - स्वपक्ष की सिद्धि हो जाने पर कथा की समाप्ति हो जाती है॥४८॥ कोई पुनः प्रश्न करता है कि स्वपक्ष क्या है जिसकी सिद्धि हो जाने से जय होती है ? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए आचार्य उपक्रम करते हैं - इस प्रकरण में जिज्ञासित (जिसकी जिज्ञासा है) विशेष धर्मी पक्ष है, यह युक्त नहीं है। क्योंकि आकाश पुष्प के समान वह जिज्ञासित विशेष धर्मी असंभव दोष से बाधित है। वादी किसी भी धर्मी में किसी साध्य विशेष की प्रतिपत्ति करना नहीं चाहता है। क्योंकि जिस वादी ने पूर्व में विशेष रूप से अर्थ का निश्चय कर लिया है, उस वादी की दूसरों को समझाने के लिए प्रवृत्ति हुआ करती है। और प्रतिवादी की प्रवृत्ति वादी के पक्ष का खण्डन करने के लिए होती है। अत: वादी और प्रतिवादी की अपेक्षा जिज्ञासितपना (जानने की इच्छा रूप) पक्ष का लक्षण घटित नहीं होता, क्योंकि वादी और
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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