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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 182 तद्यथा क्रियावद्रव्यं गुणवच्चेति विरुद्धौ / तावुक्तौ / तथाभिन्नकालौ न, विवादाझै यथा क्रियावद्रव्यं नि:क्रियं च कालभेदे सतीत्येककालावित्युक्तं। तथावसितौ विचारं न प्रयोजयेते निश्चयोत्तरकालं विवादाभावादित्यनवसितौ निर्दिष्टौ। एवं विशेषणविशिष्टयोधर्मयोः पक्षप्रतिपक्षयोः परिग्रह इत्थंभावनियमः। एवं धर्मायं धर्मी नैवं धर्मेति वा सोऽयं पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो न वितंडायामस्ति सप्रतिपक्षस्थापनार्हा नो वितंडा इति वचनात्। तथा यथोक्तो जल्पः प्रतिपक्षस्थापनाहीनतया विशेषतो वितंडात्वं प्रतिपद्यते। वैतंडिकस्य च स्वपक्ष एव साधनवादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षो हस्तिप्रतिहस्तिन्यायेन स च वैतंडिको न साधनं वक्ति केवलं परपक्षनिराकरणायैव प्रवर्तत इति व्याख्यानात्। ननु वैतंडिकस्य प्रतिपक्षाभिधानः स्वपक्षोस्त्येवान्यथा प्रतिपक्षहीन इति सूत्रकारो ब्रूयात् न तु के योग्य नहीं है। जैसे द्रव्य क्रियावान है और गुणवान है। ये अविरुद्ध दो धर्म विचार मार्ग पर आरूढ़ नहीं हैं। इसलिए विरुद्ध धर्म वाले पक्ष प्रतिपक्ष साध्य होते हैं। उसी प्रकार भिन्न काल में रहने वाले विरुद्ध दो धर्म भी विवाद करने योग्य नहीं हैं। जैसे द्रव्य सक्रिय और निष्क्रिय दोनों प्रकार के हैं। काल भेद होने पर द्रव्य में सक्रियत्व और निष्क्रियत्व दोनों घटित हो जाते हैं। इसलिए एक काल कहा है। जैन सिद्धान्त के अनुसार हलन चलन करता हुआ पुद्गल और जीव सक्रिय हैं और शेष चार द्रव्य निष्क्रिय हैं। अतः एक काल में होने वाले पक्ष प्रतिपक्ष में विवाद है। भिन्न काल में स्थित द्रव्यों में विवाद नहीं है। उत्तरकाल में विवाद का अभाव होने से निश्चित पदार्थ विवाद के योग्य नहीं है। इसलिए अनिश्चित पक्ष प्रतिपक्ष का निर्देश किया गया है। इस प्रकार एकाधिकरण, विरुद्ध, एककाल और अनिश्चित विशेषणों से विशिष्ट पक्ष-प्रतिपक्षरूप धर्म का परिग्रह (ग्रहण) करना वाद है। इस प्रकार का नियम है। परिग्रह का अर्थ 'इसी प्रकार हो सकता है' यह नियम करना है। यह धर्म इस प्रकार है, यह धर्मी का स्वरूप है, वह यह धर्म इस प्रकार नहीं है। इस प्रकार पक्ष प्रतिपक्ष का परिग्रह (ऊहापोह रूप विचार) वितण्डा में नहीं है अर्थात् प्रसिद्ध पक्ष और पक्ष का उक्ति-प्रत्युक्तिरूप कथन करना वितण्डा में नहीं है। गौतम सूत्र में वितण्डा का लक्षण इस प्रकार लिखा है कि जल्प को एकदेश यदि प्रतिपक्ष की स्थापना से हीन (रहित) होता है तो वितण्डा होती है। इसका अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त कथनानुसार जल्प यदि प्रतिपक्ष की स्थापना की हीनता के द्वारा विशेषता को प्राप्त करा दिया जाता है तो वह जल्प वितण्डापन को प्राप्त हो जाता है। वितण्डावाद प्रयोजन को सिद्ध करने वाले वादी का स्वकीय पक्ष ही साधनवादी के पक्ष की अपेक्षा से “हस्ति प्रतिहस्ति" न्याय के अनुसार प्रतिपक्ष समझ लिया जाता है। अर्थात् जिस प्रकार लड़ने के लिए खड़ा हुआ हस्ती दूसरे हस्ती की अपेक्षा प्रतिहस्ती मान लिया जाता है, उसी प्रकार शब्द के अनित्यत्व को सिद्ध करने वाले नैयायिक के पक्ष की अपेक्षा जो प्रतिपक्ष शब्द का नित्यपना है वहीं नैयायिक के पक्ष का खण्डन करने वाले वैतण्डिक का स्वकीय पक्ष है। ___ वह वैतण्डिक स्वकीय पक्ष को पुष्ट करने के लिए हेतु या युक्तियों को नहीं कहता है। केवल दूसरों के द्वारा सिद्ध किये गये पक्ष का निराकरण करने के लिए ही प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार वितण्डा के लक्षण सूत्र का कथन है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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