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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 181 तथा च वादस्तस्मात्तत्त्वाध्यवसायरक्षणार्थ इति युक्तिसद्भावात्। न तावदयमसिद्धो हेतुः प्रमाणतर्कसाधनोपालंभः सिद्धांताविरुद्धः पंचावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वाद इति वचनात्। पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहादित्युच्यमाने जल्पेपि तथा स्यादित्यवधारणविरोधस्तत्परिहारार्थं प्रमाणतर्कसाधनोपालंभत्वादिविशेषणं / न हि जल्पे तदस्ति यथोक्तोपपन्नछलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंभो जल्प इति वचनात्। तत एव न वितंडा तथा प्रसज्यते पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहरहितत्वाच्च / पक्षप्रतिपक्षौ हि वस्तुधर्मावेकाधिकरणौ विरुद्धौ एककालावनवसितौ वस्तुविशेषौ वस्तुनः सामान्येनाधिगतत्वाच्च विशेषावगमनिमित्तौ विवादः। एकाधिकरणाविति नानाधिकरणौ विचारं न प्रयोजयत उभयोः प्रमाणेनोपपत्तेः / तद्यथा-अनित्या बुद्धिर्नित्य आत्मेति अविरुद्धावप्येवं विचारं न प्रयोजयतः। यदि इस हेतु में पक्ष और प्रतिपक्ष का ग्रहण करना मात्र कह दिया जाता, तब तो जल्प में भी पक्ष प्रतिपक्ष का ग्रहण होने से “वाद ही तत्त्व का संरक्षक है," इस प्रकार की अवधारणा का विरोध आता है। अतः उस विरोध का परिहार करने के लिए प्रमाण, तर्क, साधन, उलाहना देना, सिद्धान्त से अविरुद्ध होना आदि विशेषण दिये गये हैं। जल्प में प्रमाण, तर्क, साधन उपालंभ सिद्धान्त से अविरुद्ध आदि हेतु के विशेषण नहीं हैं। क्योंकि न्यायशास्त्र में कहा है कि उपरि कथित वाद के लक्षण से युक्त है परन्तु छल, जाति (असत् उत्तर देना) निग्रहस्थानों के द्वारा साधन का उपालंभ उलाहना जिसमें होते हैं वह जल्प कहलाता है। अर्थात् जिसमें छल, जाति निग्रह स्थान आदि के द्वारा स्वपक्षसाधन और परपक्ष दूषण दिया जाता है वह जल्प है। तथा वितंडा में भी वाद का प्रसंग नहीं आ सकता। क्योंकि वितण्डा तत्त्वों के निर्णय का संरक्षक नहीं है। वितण्डा में पक्ष का ग्रहण और प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं है। अतः जल्प और वितण्डा से रहित वाद ही तत्त्वों के निश्चय का संरक्षक है। परस्पर विरुद्ध, एक अधिकरण से युक्त और एक काल में रहने वाले वस्तु स्वभावस्वरूप पक्ष प्रतिपक्ष वस्तुविशेष हैं, जो वस्तु के सामान्य धर्म से अधिगत हैं, और विशेष धर्म के जानने के निमित्तभूत हों-ऐसे पक्ष प्रतिपक्ष में विवाद होता है। अर्थात् जैसे शब्द को वा आत्मा को सामान्य रूप से ज्ञाता द्रष्टा जानकर उसके विशेष नित्यत्व अनित्यत्व आदि विशेषों (पर्यायों) को जानने में विवाद होता है। वे पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों एक अधिकरण में रहने चाहिए क्योंकि नाना अधिकरण में स्थित पक्ष प्रतिपक्ष धर्म वादी प्रतिवादी को विचार करने के लिए प्रेरित नहीं करते हैं अर्थात् नाना अधिकरणों में रहने वाले धर्मों का विचार (साध्य) करना नहीं होता है। क्योंकि दो अधिकरणों में पृथक्-पृथक् रहने वाले पक्ष और प्रतिपक्ष प्रमाण से सिद्ध हैं। जैसे बुद्धि (मनोविज्ञान) अनित्य और आत्मा नित्य है, इसमें अनित्य धर्म बुद्धि में है और नित्य धर्म आत्मा में है। दोनों विरुद्ध धर्मों का अधिकरण भिन्न है। अतः इसमें विवाद नहीं है। परन्तु दोनों विरुद्ध धर्मों का अधिकरण जब एक होता है तब उसको सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ किया जाता है। क्रियावान पुद्गल है और अक्रियावान आकाश है। इसमें विवाद नहीं है। अविरुद्ध धर्म भी विवाद 1. पक्ष को कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं। साध्य को सिद्ध करने के लिए कहा गया साध्य का अविनाभावी हेतु है। उसको सिद्ध करने के लिए दृष्टान्त देना उदाहरण है। जैसे पर्वत अग्निमान है (प्रतिज्ञा) धूमवाला होने से (हेतु) जो धूमवाला है वह अग्निवाला है, जैसे रसोई घर। प्रतिज्ञा को दोहराना उपनय है, जैसे वह पर्वत भी धुआँ वाला है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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