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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 180 ननु च प्राश्निकापेक्षणाविशेषेपि वादजल्पवितंडानां न वादो जिगीषतोस्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वरहितत्वात् / यस्तु जिगीषतोर्न स तथा सिद्धो यथा जल्पो वितंडा च तथा वादः तस्मान्न जिगीषतोरिति। न हि वादस्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थो भवति जल्पवितंडयोरेव तथात्वात्। तदुक्तं। “तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थे जल्पवितंडे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थं कंटक शाखावरणवदिति। तदेतत्प्रलापमानं, वादस्यैव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वोपपत्तेः। तथाहि-वाद एव तत्त्वाध्यवसायरक्षणार्थः प्रमाणतर्कसाधनोपालंभत्वे सिद्धांताविरुद्धत्वे पंचावयवोपपन्नत्वे च सति पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात्, यस्तु न तथा स न यथा आक्रोशादिः, नैयायिक प्रश्न करता है वा कहता है कि यद्यपि वाद, जल्प और वितण्डा के बीच प्राश्निक (सभ्य) पुरुषों की अपेक्षा में कोई विशेषता नहीं है, तथापि वाद जीतने की इच्छा रखने वाले पुरुषों में नहीं होता है। क्योंकि वह तत्त्वनिर्णय की रक्षा के प्रयोजन से रहित है। परन्तु जो जीतने की इच्छा रखने वालों में प्रवर्त्त रहा है वह तत्त्व निर्णय का संरक्षण करने रूप प्रयोजन से रहित नहीं है। जैसे कि जल्प और वितण्डा हैं। अर्थात् जैसे जीतने की इच्छा से प्रवर्त्त होने वाला जल्प और वितण्डा तत्त्व के निर्णायक नहीं हैं, उसी प्रकार जीतने की इच्छा रखने वालों में होने वाला वाद भी तत्त्व का निर्णायक नहीं है। अतः तत्त्व का निर्णय करने के लिये वाद नहीं होता है। इसलिए जीतने की इच्छा करने वाले में होने वाला विवाद वाद नहीं है। वाद तत्त्व के निर्णय की रक्षा करने के लिए नहीं है। परन्तु जल्प और वितण्डा तत्त्वनिर्णय की रक्षा के लिए हैं। सो ही न्याय ग्रन्थों में कहा है - ___ जल्प और वितण्डा तत्त्व के निर्णय की रक्षा के लिये होता है। जैसे कि बीज के बोने पर उत्पन्न छोटे-छोटे अंकुरों की रक्षा करने के लिए कंटकाकीर्ण वृक्षों की शाखाओं के द्वारा किया गया आवरण (बाड़) उपयोगी होता हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिकों का यह कथन केवल प्रलाप मात्र है। क्योंकि वास्तव में वाद के ही तत्त्वनिर्णय के संरक्षण रूप प्रयोजन का सहित पना है अर्थात् वाद ही तत्त्व का निर्णायक ___उसी को आचार्य अनुमान के द्वारा सिद्ध करते हैं- प्रमाण और तर्क के द्वारा स्वपक्ष साधन और परपक्ष का निराकरण करने वाला होने से, सिद्धान्त के अविरुद्ध होने से, अनुमान के पाँच अंगों से सहित होने से, पक्ष और प्रतिपक्ष का ग्रहण करने वाला होने से वाद ही तत्त्वों के निर्णय की रक्षा करने के लिए होता है। परन्तु जो इस प्रकार तत्त्व के निर्णय रूप संरक्षक का प्रयोजनभूत नहीं है - वह उक्त हेतुओं से सहित नहीं है; जैसे रोना, गाली देना आदि। परन्तु वाद तत्त्व का निर्णायक है, अत: तत्त्व के निर्णय के सरंक्षणार्थ है। अत: इसमें अनुमान प्रमाण रूप युक्ति का सद्भाव है। यह तत्त्व संरक्षण रूप हेतु असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि प्रमाण (प्रमिति का करण) तर्क (तत्त्वज्ञान के विचारात्मक ऊहापोह) साधन (परपक्ष का दूषक और स्वपक्ष का साधक कारण) का उपलंभ सिद्धान्त के अविरुद्ध है। अनुमान के पाँच अवयवों प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन से सहित है और विवादापन्न पक्ष प्रतिपक्ष का ग्रहण करने वाला वाद कहलाता है अर्थात् युक्ति प्रत्युक्ति सहित वचनों की रचना को वाद कहते हैं, ऐसा न्यायसूत्र का कथन है, वह नैयायिकों के मतानुसार ही है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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