SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 183 प्रतिपक्षस्थापनाहीन इति। न हि राजहीनो देश इति च कश्चिद्राजपुरुषहीन इति वक्ति तथाभिप्रेतार्थाप्रतिपत्तेरिति केचित् / तेपि न समीचीनवाचः, प्रतिपक्ष इत्यनेन विधिरूपेण प्रतिपक्षहीनस्यार्थस्य विवक्षितत्वात्। यस्य हि स्थापना क्रियते स विधिरूप: प्रतिपक्षो न पुनर्यस्य परपक्षनिराकरणसामोन्नतिः सोत्र मुख्यविधिरूपतया व्यवतिष्ठते तस्य गुणभावेन व्यवस्थितेः। जल्पोपि कश्चिदेवं प्रतिपक्षस्थापनाहीनः स्यान्नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वप्रसंगादिति परपक्षप्रतिषेधवचनसामर्थ्यात् सात्मकं जीवच्छरीरमिति स्वपक्षस्य सिद्धेर्विधिरूपेण स्थापनाविरहादिति चेन्न, नियमेन प्रतिपक्षस्थापनाहीनत्वाभावाजल्पस्य / तत्र हि कदाचित्स्वपक्षविधानद्वारेण . शंका - वितण्डा नामक शास्त्रार्थ को करने वाले वैतण्डिक का प्रतिपक्ष नामक स्वपक्ष है ही। अन्यथा “प्रतिपक्ष से हीन वितण्डा है" ऐसा न्याय सूत्रकार कह देते। किन्तु प्रतिपक्ष की स्थापना से हीन है, ऐसा नहीं कहते हैं। राज से हीन (रहित) देश है ऐसा कहने पर राजपुरुषों से देश रहित है ऐसा कोई नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा कहने पर अभिप्रेत अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती। अर्थात् जो प्रतिवादी के प्रतिकूल पक्ष है, वही वैतण्डिक वादी का स्वपक्ष है। इसलिये वैतण्डिक को प्रतिपक्ष की स्थापना करने से रहित कहा है। सर्वथा वैतण्डिक को प्रतिपक्ष रहित नहीं कहा है जैसे सर्व देश में राजा व्यापक नहीं हैं, राजपुरुष काम कर रहे हैं। अत: सर्वथा राज रहित देश नहीं है - ऐसा कोई कह रहे हैं। - समाधान - जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाला विद्वान् भी समीचीन वक्ता नहीं है। क्योंकि "प्रतिपक्ष' इस विधि रूप से प्रतिपक्ष हीन अर्थ की विवक्षा है; जिसकी स्थापना की जाती है वह विधि रूप प्रतिपक्ष है, परन्तु पुनः जिसका परपक्ष के निराकरण के सामर्थ्य से उन्नयन कर लिया जाता है अर्थात् अर्थापत्तिज्ञान से जिसका ज्ञान हो जाता है, वह मुख्य रूप से यहाँ व्यवस्थित नहीं है, अपितु गौण रूप से व्यवस्थित है। ... - कोई विद्वान् कहते हैं कि जल्प भी प्रतिपक्ष की स्थापना से हीन है। जैसे यह जीवित शरीर आत्मा रहित नहीं है, श्वासोच्छ्वास आदि प्रमाण वाला होने से। वा प्राणत्व का प्रसंग होने से। क्योंकि जीव रहित शरीर में श्वासोच्छ्वास आदि प्रमाण नहीं होते। इस प्रकार परपक्ष का निषेध करने वाले वचन के सामर्थ्य से ही जीवित शरीर सात्मक है, इस प्रकार स्वपक्ष की सिद्धि हो जाती है। परन्तु स्वतंत्र विधिरूप से जल्पवादियों के पक्ष की स्थापना नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि नियम रूप से जल्पवादी के प्रतिपक्ष की स्थापना से रहितपना नहीं है। अर्थात् वितण्डा स्वकीय पक्ष की स्थापना से रहित है परन्तु जल्प पक्ष की स्थापना रहित नहीं है। क्योंकि जल्प में कदाचित् स्वपक्ष के विधान द्वारा परपक्ष का प्रतिषेध कर दिया जाता है और कभी परपक्ष के निषेध से स्वपक्ष का विधान इष्ट किया गया है। किन्तु वितण्डा में इस प्रकार नहीं है। क्योंकि वितण्डा में सर्वदा परपक्ष के निषेध का ही नियम है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy