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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *165 संकल्पनामात्रग्राहिणो नैगमस्य तावदाश्रयणाद्विधिकल्पना, प्रस्थादिसंकल्पमात्रं प्रस्थाद्यानेतुं गच्छामीति व्यवहारोपलब्धेः / भाविनि भूतवदुपचारात्तथा व्यवहार: तंदुलेष्वोदनव्यवहारवदिति चेन्न, प्रस्थादिसंकल्प्यस्य तदानुभूयमानत्वेन भावित्वाभावात् प्रस्थादिपरिणामाभिमुखस्य काष्ठस्य प्रस्थादित्वेन भावित्वात् तत्र तदुपचारस्य प्रसिद्धिः। प्रस्थादिभावाभावयोस्तु तत्संकल्प्यस्य व्यापिनोनुपचरितत्वात्। न च तद्व्यवहारो मुख्य एवेति इस प्रकार प्रत्येक पर्याय में बहुत प्रकार से एक वस्तु में अविरोध करके विधि और प्रतिषेध आदि की कल्पना करना आचार्यों ने सप्तभंगी कही है अर्थात् - पूर्वकथित प्रमाण सप्तभंगी के समान यह नयसप्तभंगी भी अनेक प्रकार से जोड़ लेनी चाहिए। प्रश्न के वश से एक वस्तु में या वस्तु के अंश में विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना यह सप्तभंगी का निर्दोष लक्षण है। लक्ष्य के एकदेश में रहने वाले अव्याप्तिदोष की इसमें सम्भावना नहीं है। और यह सप्तभंगी अतिव्याप्ति दोष से युक्त नहीं है, तथा असम्भव दोषवाली भी नहीं है। क्योंकि इस प्रकार प्रतीतियों से वस्तु में सातों भंग सम्भव है। उसी निर्णय को यहाँ इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि सर्वप्रथम केवल संकल्प को ही ग्रहण करने वाले नैगमनय का आश्रय लेने से विधि की कल्पना करना। क्योंकि प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा, आदि के केवल संकल्पस्वरूप जो प्रस्थ आदिक को लाने के लिए जाता है, इस प्रकार व्यवहार देखा जाता है। अर्थात् - प्रस्थ लाना नहीं है। किन्तु प्रस्थ के केवल संकल्प का लाना है। अन्न मापने वाले प्रस्थ के संकल्प की नैगमनय के द्वारा विधि की गयी है। प्रश्न - भविष्य में होने वाले पदार्थ में द्रव्यनिक्षेप से ही पदार्थ के समान यहाँ उपचार से उस प्रकार का व्यवहार कर लिया जाता है, जैसे कच्चे चावलों में पके भात का व्यवहार हो जाता है। उत्तर - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि उस नैगमनय की प्रवृत्ति के अवसर पर प्रस्थ आदि के संकल्प संकल्प को प्राप्त प्रस्थ आदि का ही अनभव किया जा रहा है। इस कारण उस संकल्प को भविष्यकाल सम्बन्धीपने का अभाव है। प्रस्थ इन्द्र आदि का संकल्प तो वर्तमान काल में विद्यमान है, संकल्प भविष्य में होने वाला नहीं है। प्रस्थ, प्रतिमा, आदि पर्यायस्वरूप होने के लिए अभिमुख काठ को प्रस्थ, प्रतिमा आदि की अपेक्षा भविष्यकाल सम्बन्धीपना है। अत: उस काष्ठ में उन प्रस्थ आदि के उपचार की सिद्धि हो जाती है। किन्तु नैगम नय का विषय तो मुख्य ही है क्योंकि प्रस्थ आदि के सद्भाव होने पर या उनका अभाव होने पर, दोनों दशा में व्यापक उन प्रस्थ आदि सम्बन्धी संकल्प को तो अनुपचरितपना है किन्तु द्रव्यनिक्षेप की अपेक्षा भावी में भूतपने और वर्तमानपने के समान उसका व्यवहार तो मुख्य नहीं है। अर्थात् द्रव्यनिक्षेप का विषय तो वर्तमान काल में नहीं विद्यमान है। किन्तु नैगम का विषय संकल्प मुख्य होकर इस काल में विद्यमान है। अत: नैगम नय की अपेक्षा प्रस्थ आदि की विधि को करने वाला प्रथम भंग बनाना चाहिए और शेष छह नयों की अपेक्षा से दूसरा भंग बनाना चाहिए। ___ उस संकल्पित प्रस्थ आदि के प्रति संग्रहनय के आश्रय से प्रतिषेध की कल्पना करना। क्योंकि का ही.या
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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