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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 164 तथोत्तरोत्तरनयसप्तभंग्योपि शब्दत: संख्याता: प्रतिपत्तव्याः। इति प्रतिपर्यायं सप्तभंगी बहुधा वस्तुन्येकत्राविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना प्रागवदुक्ताचार्य: नाव्यापिनी नातिव्यापिनी वा नाप्यसंभविनी तथा प्रतीतिसंभवात् / तद्यथासप्तभंगियाँ हुईं। इस प्रकार संग्रहनय क भेदों की शेष नयों के भेदों के साथ 4+2+12+2+2=22 बाईस. सप्तभंगियाँ हुईं। तथा व्यवहारनय के दो भेदों की अपेक्षा अस्तित्व मान कर और ऋजुसूत्र के एक भेद की अपेक्षा नास्तित्व मान कर दो मूलभंगों से एक-एक सप्तभंगी बनाते हुए दो सप्तभंगियाँ हुईं और दो व्यवहारनयों की छह प्रकार के शब्दनयों के साथ अस्तित्व, नास्तित्व की कल्पना करने पर बारह सप्तभंगियाँ और दो प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा अस्तित्व की कल्पना करने पर समभिरूढ़ के साथ नास्तित्व को मानते हुए दो सप्तभंगियाँ, दो व्यवहारनयों की अपेक्षा विधान करते हुए एवंभूत की अपेक्षा नास्तित्व को कल्पित कर दो सप्तभंगियाँ, इस प्रकार व्यवहारनय के दो भेदों की शेषनय या नयभेदों के साथ 2+12+2+2-18 अठारह सप्तभंगियाँ होती हैं। तथा ऋजुसूत्र की सप्तभंगियाँ यों हैं कि एक ऋजुसूत्र की छह प्रकार के शब्द नय के साथ अस्तित्व, नास्तित्व को विवक्षित कर छह सप्तभंगियाँ होती हैं, यद्यपि ऋजुसूत्र की अपेक्षा अस्तित्व कल्पित कर और समभिरूढ़ की अपेक्षा नास्तित्व की कल्पना कर एक सप्तभंगी तथा ऋजुसूत्र की अपेक्षा अस्तित्व और एवंभूत की अपेक्षा नास्तित्व मान कर दो मूल भंगों द्वारा दूसरी सप्तभंगी-इस प्रकार दो सप्तभंगियाँ अन्य भी हो सकती थीं। किन्तु ये दो सप्तभंगियाँ मूलनय की इक्कीस सप्तभंगियों में गिनाई जा चुकी हैं। नयों के उत्तर भेदों की सप्तभंगियों में उक्त दो सप्तभंगियों को गिनाने का प्रकरण नहीं है। अत: एक प्रकार के ऋजुसूत्र नय की शेष उत्तरनय भेदों के साथ छह ही सप्तभंगियाँ होती हैं। तथा शब्दनय के भेदों की सप्त भंगियाँ इस प्रकार हैं कि छह प्रकार के शब्दनय की अपेक्षा अस्तित्व मानकर एक ही प्रकार के समभिरूढ़ नय की अपेक्षा नास्तित्व की कल्पना करके दो मूलभंगों द्वारा छह सप्तभंगियाँ और छह शब्दनय के भेदों की अपेक्षा अस्तित्व मानकर एक प्रकार के एवंभूत की अपेक्षा नास्तित्व को मानते हुए छह सप्तभंगियाँ हैं। इस प्रकार शब्दनय के भेदों की बचे हुए दो नयों के साथ 6+6=12 बारह सप्तभंगियाँ होती हैं। समभिरूढ़ और एवंभूत का कोई उत्तरभेद नहीं है। अत: समभिरूढ़ की एवंभूत के साथ अस्तित्व या नास्तित्व विवक्षा करने पर उत्पन्न हुई एक सप्तभंगी मूल इक्कीस सप्तभंगियों में गिनी जा चुकी है। उत्तर सप्तभंगी में उसको गिनने की आवश्यकता नहीं है, गिन भी नहीं सकते हैं। इस प्रकार उत्तर नयों की 117+22+18+6+12= 175 एक सौ पिचत्तर सप्तभंगियाँ होती हैं। इस प्रकार भेद-प्रभेद करते हुए उत्तरोत्तर नयों की सप्तभंगियाँ भी शब्दों की अपेक्षा संख्यात हो सकती हैं। क्योंकि जगत् में संकेत अनुसार वाच्य अर्थों को प्रतिपादन करने वाले शब्द केवल संख्यात हैं। असंख्यात या अनन्त नहीं हैं। भावार्थ - चौसठ अक्षरों के द्वारा संयुक्त अक्षर बनाये जाँय तो एक कम एकट्ठि प्रमाण 18446744073709551615 इतने एक-एक होकर अपुनरुक्त अक्षर बन जाते हैं। तथा संकेत अनुसार इन अक्षरों को आगे पीछे रख कर या स्वरों का योगकर एकस्वर पद (एक स्वर वाले पद), दो स्वरवाले पद, तीन स्वर वाले पद, चार स्वर वाले पद, पाँच स्वरवाले पद एवं अ (निषेध या वासुदेव) इ (कामेदव), उ (क्रोध उक्ति), मा (लक्ष्मी), कु (पृथ्वी), ख (आकाश) घट (घड़ा), अग्नि, (आग), करी (हाथी), मनुष्य भुजंग, मर्कट, अजगर, पारिजात, परीक्षक, अभिनन्दन, साम्परायिक, सुरदीर्घिका अङ्गाखल्लरी, अभ्यवकर्षण, श्री वत्सलाञ्छन, इत्यादि पद बनाये जावें तो पद्मों, संखों, नलिनांग, नलिन आदि संख्याओं का अतिक्रमण कर संख्याती सप्तभंगियाँ बन जाती हैं, ऐसा समझना चाहिए जो कि जघन्य परीतासंख्यात से एक कम और उत्कृष्ट संख्यात नाम की संख्या के भीतर हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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