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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 166 तत्प्रतिसंग्रहाश्रयणात्प्रतिषेधकल्पना न प्रस्थादिसंकल्पमात्र प्रस्थादिसन्मात्रस्य तथा प्रतीतें: असत: प्रतीतिविरोधादिति व्यवहाराश्रयणात् द्रव्यस्य तथोपलब्धेरद्रव्यस्यासतः सतो वा प्रत्येतुमशक्ते: पर्यायस्य तदात्मकत्वादन्यथा द्रव्यांतरत्वप्रसंगादिति ऋजुसूत्राश्रयणात्पर्यायमात्रस्य प्रस्थादित्वेनोपलब्धेः, अन्यथा प्रतीत्यनुपपत्तेरिति शब्दाश्रयणात् कालादिभेदाद्भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वादन्यथातिप्रसंगात् / इति समभिरूढाश्रयणात् पर्यायभेदेन भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वात् अन्यथातिप्रसंगादिति, एवंभूताश्रयणात् केवल प्रस्थ आदि का मानसिक संकल्प ही ता प्रस्थ, प्रतिमा, आदि स्वरूप पदार्थ नहीं है, परन्तु इस प्रकार प्रस्थ आदि के सद्भाव से तो केवल विद्यमान पदार्थों की ही प्रतीति हो सकती है। असत् पदार्थ की प्रतीति होने का विरोध है। अर्थात् वस्तुभूत प्रस्थ आदि नहीं हैं क्योंकि वे संग्रहनय की अपेक्षा नास्तित्व धर्म द्वारा प्रतिषिद्ध कर दिये जाते हैं। व्यवहारनय के आश्रय से ही द्रव्य की उस प्रकार की उपलब्धि होती है। क्योंकि सद्भाव के होने पर उसके व्याप्य द्रव्य की उस प्रकार प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा आदि रूप से उपलब्धि होती है। नैगमनय द्वारा केवल संकल्पित कर लिये गये असत् पदार्थ की अथवा संग्रह नय द्वारा सद्भूत जान लिये गये भी पदार्थ की व्यवहार नय द्वारा तब तक प्रतीति नहीं की जा सकती है, जब तक कि वह द्रव्य रूप से या सामान्य पर्याय रूप से व्यवहृत होता हुआ विभक्त नहीं किया जाता है। प्रकरण में प्रस्थरूपपर्याय को उस प्रस्थ आत्मक पना है। यदि ऐसा नहीं मानकर दूसरे प्रकारों से मानोगे तो प्रस्थ, घट, पट आदि को भिन्न-भिन्न द्रव्य हो जाने का प्रसंग आयेगा। भावार्थ - व्यवहार नय और ऋजुसूत्र नय द्रव्य या पर्याय की प्रस्थ आदि रूप से विधि कर सकता है। कोरे संकल्प को प्रस्थ नहीं कहना चाहता है। अत: व्यवहार नय से ही प्रतिषेध कल्पना कर दूसरे भंग को पुष्ट करते हैं। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय के आश्रय से केवल प्रस्थ, प्रतिमा, आदि पर्यायों की प्रस्थ आदि रूप से उपलब्धि होती है। दूसरे प्रकारों से (संकल्प या सन्मात्र अथवा केवल द्रव्य कह देने से ही) प्रस्थ पर्याय की प्रतीति नहीं होती है। अत: ऋजुसूत्रनय से भी नास्तित्व भंग को साध लेना चाहिए। इस प्रकार शब्द नय के आश्रय से प्रतिषेध की कल्पना करना चाहिए, क्योंकि काल, कारक आदि के भेद से भिन्न अर्थ को प्रस्थ आदिपना है। अन्यथा (दूसरे प्रकार से) प्रस्थ आदि की व्यवस्था करने पर अतिप्रसंग दोष आता है इस प्रकार शब्द नय से नास्तित्व भंग को सिद्ध करना चाहिए। तथा छठे समभिरूढ़नय का आश्रय लेने से प्रतिषेध की कल्पना करनी चाहिए। क्योंकि प्रस्थ, पल्य आदि पर्यायवाचक शब्दों के भेद हो जाने से भिन्न-भिन्न अर्थ को प्रस्थ आदिपना है। अन्यथा अतिप्रसंग हो जाएगा। अर्थात् पूर्व नयों के व्यापक अर्थों में समभिरूढ़नय होता है, तथा इसी प्रकार नैगम नय की अपेक्षा विधि की कल्पना करते हुए एवंभूत नय का आश्रय करने से निषेध की कल्पना करनी चाहिए। क्योंकि प्रस्थ आदि की क्रिया करने में परिणत अर्थ को प्रस्थ आदिपना है। अन्यथा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् - जिस समय नापने के लिए पात्र में गेहूँ धान स्थित हैं, उसी समय की पात्र अवस्था को प्रस्थ कहना चाहिए। खाली रखे हुए पात्र को प्रस्थ नहीं मानना चाहिए। अन्यथा अव्यवस्था हो जाती है। जगत् में चाहे जिस पदार्थ को चाहे जिस शब्द करके कह दिया जावेगा। किन्तु एवंभूतनय की मनीषा अलग है। एवंभूत नय में परिणति मूल कारण है। उसको छोड़ देने पर सभी शाखाएँ
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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