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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 161 कथं पुनर्नयवाक्यप्रवृत्तिरित्याहनैगमाप्रातिकूल्येन न संग्रहः प्रवर्तते। ताभ्यां वाच्यमिहाभीष्टा सप्तभंगीविभागतः // 10 // नैगमव्यवहाराभ्यां विरुद्धाभ्यां तथैव सा। सा नैगमर्जुसूत्राभ्यां तादृग्भ्यामविगानतः // 11 // सा शब्दान्निगमादन्याधुक्तात् समभिरूढतः। सैवंभूताच्च सा ज्ञेया विधानप्रतिषेधगा॥९२॥ संग्रहादेश शेषेण प्रतिपक्षेण गम्यताम् / तथैव व्यापिनी सप्तभंगी नयविदां मता // 13 // विशेषैरुत्तरैः सर्वैर्नयानामुदितात्मनाम्। परस्परविरुद्धार्थेद्ववृत्तेर्यथायथम् // 94 // नयों में वाक्य की प्रवृत्ति किस प्रकार होती है? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं - संग्रह नय नैगमनय के प्रतिकूल प्रवृत्ति करता है। अर्थात् नैगम यदि अस्ति को कहेगा तो संग्रह नास्ति धर्म को कहेगा। अतः उन दोनों नैगम संग्रहनयों से यहां अभीष्ट सप्तभंगी अनेक भेदों के द्वारा वाच्य होती है। अर्थात् नैगमनय की अपेक्षा संकल्पित इन्द्र का अस्तित्व मानकर और संग्रहनय से उसका नास्तित्व अभिप्रेत कर सात भंगों के समाहार स्वरूप एक नयसप्तभंगी बना लेनी चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी विभाग करने से सप्तभंगी के अनेक भेद हो जाते हैं।९०॥ उसी प्रकार विरुद्ध अस्तित्व और नास्तित्व के प्रयोजक नैगम और व्यवहार नय के द्वारा भी सप्तभंगी बनानी चाहिए तथा उसके सदृश विरुद्ध नैगम और ऋजुसूत्र दो नयों से अस्तित्व, नास्तित्व को कल्पित कर अनिन्दित मार्ग से सप्तभंगी बना लेनी चाहिए // 11 // इसी प्रकार वही सप्तभंगी नैगम नय से और शब्दनय से विधि और प्रतिषेध को प्राप्त है। तथा नैगम और अन्य भिन्नादि शब्दों के द्वारा कहे जा चुके समभिरूढ़ नय से भी विधि और निषेध को प्राप्त वह एक न्यारी सप्तभंगी है तथा विरुद्ध नैगम और एवंभूत से विधान करना और निषेध करना धर्मों को ले रही वह सप्तभंगी पृथक् समझनी चाहिए // 12 // ___ जैसे नैगम की अपेक्षा अस्तित्व को रखकर शेष छह नयों की अपेक्षा से नास्तित्व को रखते हुए छह सप्तभंगियाँ बनायी गयी हैं, इसी प्रकार संग्रह आदि नयों से अस्तित्व को व्यवस्थापित कर शेष उत्तरवर्ती प्रतिपक्षी नयों के द्वारा उसी प्रकार व्याप्त सप्तभंगियाँ यों समझ लेनी चाहिए। ये सभी सप्तभंगियाँ नयवेत्ता विद्वानों के यहाँ ठीक मानी गयी हैं॥९३।। पूर्व-पूर्व में जिनके स्वरूप कह दिये गये हैं, ऐसे सम्पूर्ण नयों की उत्तर-उत्तरवर्ती विशेष हो रहीं सम्पूर्ण नयों के साथ सप्तभंगियाँ बन जाती हैं। परस्पर में विरुद्ध सरीखे अर्थों को विषय करने वाले नयों के साथ यथायोग्य कलह हो जाने की प्रवृत्ति हो जाने से अस्तित्व और नास्तित्व के प्रयोजक धर्म घटित हो जाते हैं।९४॥ उसी प्रकार प्रत्येक पर्याय में नयसप्तभंगी समझ लेनी चाहिए, जैसे वह अविरुद्ध प्रमाण सप्तभंगी पूर्व प्रकरणों से व्यवस्थित की जा चुकी है। उस नयसप्तभंगी के बिना चारों ओर से वचन बोलने का उपाय घटित नहीं हो पाता है। विशेष यह है कि नय सप्त भंगी में नास्तित्व की व्यवस्था कराने के लिए विरुद्ध
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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