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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 162 प्रत्येया प्रतिपर्यायमविरुद्धा तथैव सा / प्रमाणसप्तभंगी च तां विना नाभिवाग्गतिः // 15 // इह तावन्नैगमस्य संग्रहादिभिः सह षड्भिः प्रत्येकं षट् सप्तभंग्यः, संग्रहस्य व्यवहारादिभिः सह वचनात् पंच, व्यवहारस्यर्जुसूत्रादिभिश्चतस्रः, ऋजुसूत्रस्य शब्दादिभिस्तिस्रः, शब्दस्य समभिरूढादिभ्यां द्वे, समभिरूढस्यैवंभूतेनैका, इत्येकविंशतिमूलनयसप्तभंग्य: पक्षप्रतिपक्षतया विधिप्रतिषेधकल्पनयावगंतव्याः। तथा धर्म अपेक्षणीय है और प्रमाणसप्तभंगी में नास्तित्व धर्म की व्यवस्था के लिए अविरुद्ध आरोपित धर्म से नास्तित्व की व्यवस्था है॥९५॥ यहाँ नैगमनय की संग्रह, व्यवहार आदि छह नयों के साथ एक-एक होती हुई छह सप्तभंगियाँ बन जाती हैं। अर्थात् नैगम नय की अपेक्षा अस्तित्व - 1 और संग्रह से नास्तित्व - 2, क्रम से उभय - 3, अक्रम से अवक्तव्य- 4, नैगम और अक्रम से अस्ति अवक्तव्य - 5, संग्रह और अक्रम से नास्ति अवक्तव्य - 6, नैगम और संग्रह से तथा अक्रम से विवक्षा करने पर अस्तिनास्ति अवक्तव्य -7, इन सात भंगोंवाली एक सप्तभंगी हुई। इसी प्रकार नैगम से विधि की कल्पना कर और व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत से प्रतिषेध की कल्पना करनी चाहिए। मूलभंगों को बनाकर शेष पाँच भंगों को क्रम, अक्रम आदि से बनाते हुए पाँच सप्तभंगियाँ बना लेनी चाहिए। नैगमनय की संग्रह आदि के साथ छह सप्तभंगियाँ हुईं। तथा संग्रहनय की अपेक्षा विधि की कल्पना कर और व्यवहार नय की अपेक्षा से प्रतिषेध कल्पना करते हुए दो मूल भंग बनाकर सप्तभंगी बना लेना चाहिए। इसी प्रकार संग्रह की अपेक्षा विधि की कल्पना कर ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नयों की अपेक्षा नास्तित्व मानकर अन्य चार सप्तभंगियाँ बना लेना। इस प्रकार संग्रहनय की व्यवहार आदि के साथ कथन कर देने से एक एक प्रति एक एक सप्तभंगी होती हुई पाँच सप्तभंगियाँ हुईं। तथा व्यवहार की अपेक्षा अस्तित्व कल्पना कर और ऋजुसूत्र की अपेक्षा नास्तित्व को मानकर इन दो मूल भंगों से एक सप्तभंगी बनाना / व्यवहार नय की अपेक्षा अस्तित्व मान कर शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत से नास्तित्व की कल्पना करके तीन सप्तभंगियाँ और भी बना लेना। ये व्यवहारनय की ऋजुसूत्र आदि के साथ चार सप्तभंगियाँ होती हैं। तथा ऋजुसूत्र की अपेक्षा विधि की कल्पना अनुसार शब्द आदि तीन नयों के साथ निषेध की कल्पना कर दो-दो मूल भंगों के साथ ऋजुसूत्र नय की शब्द आदि तीन के साथ तीन सप्तभंगियाँ होती हैं। तथा शब्दनय की अपेक्षा विधि कल्पना कर और समभिरूढ़ के साथ निषेध कल्पना करते हुए दो मूल भंगों से एक सप्तभंगी बनाना। इसी प्रकार शब्द द्वारा विधि और एवंभूत द्वारा निषेध की कल्पना कर दो मूलभंगों से दूसरी सप्तभंगी बना लेना। इस प्रकार शब्द की समभिरूढ़ आदि दो नयों के साथ दो सप्तभंगियाँ हुईं। तथा समभिरूढ़ की अपेक्षा अस्तित्व की कल्पना कर और एवंभूत की अपेक्षा नास्तित्वको मानते हुए दो मूल भंगों से एक सप्तभंगी बना लेना। इस प्रकार स्वकीय पक्ष में पूर्व-पूर्व नयों की अपेक्षा से विधि और प्रतिकूल पक्ष माने गये, उत्तर-उत्तर नयों की अपेक्षा से प्रतिषेध की कल्पना करके सात मूल नयों की इक्कीस सप्तभंगियाँ होती हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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