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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 160 व्यवहारादृजुसूत्रो बहुविषय इति विपर्यासं निरस्यतिनर्जुसूत्रः प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचरः। कालत्रितयवृत्त्यर्थगोचराद्व्यवहारतः // 86 // ऋजुसूत्राच्छब्दो बहुविषय इत्याशंकामपसारयतिकालादिभेदतोप्यर्थमभिन्नमुपगच्छतः। न सूत्रान्महार्थोत्र शब्दस्तद्विपरीतवत् / / 87 // . शब्दात्समभिरूढो महाविषय इत्यारेका हंतिशब्दात्पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थमभीप्सिनः। न स्यात्समभिरूढोपि महार्थस्तद्विपर्ययः॥८॥ समभिरूढादेवंभूतो भूमविषय इति चाकूतमपास्यतिक्रियाभेदेपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छतः। नैवंभूतः प्रभूतार्थो नयः समभिरूढतः // 89 // व्यवहारनय की अपेक्षा ऋजुसूत्रनय बहुत पदार्थों को विषय करता है, इस प्रकार के विपर्यय ज्ञान का आचार्य निराकरण करते हैं। भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों काल में स्थित अर्थों को विषय करने वाले व्यवहारनय की अपेक्षा केवल वर्तमान काल के अर्थों को विषयं करने वाला ऋजुसूत्र नय तो बहु विषयज्ञ नहीं है। अर्थात् व्यवहार नय तीनों काल के पदार्थों को विषय करता है और ऋजुसूत्र नय केवल वर्तमान काल की पर्याय को ही विषय करता है। अतः अल्प विषयज्ञ है और व्यवहार का कार्य है।८६।। ऋजुसूत्र नय से शब्दनय का विषय बहुत है। श्री विद्यानन्द स्वामी इस आशंका का निवारण करते हैं। काल, कारक आदि का भेद होने पर भी अभिन्न ही अर्थ को अभिप्रेत करने वाले ऋजुसूत्र नय से शब्दनय विपरीत यानी कालादि के भेद से भिन्न अर्थों को जानता है। अर्थात् ऋजुसूत्र नय तो काल आदि से भिन्न अनेक अर्थों को अभिन्न रूप से जानता है। और शब्द नय काल आदि से भिन्न एक - एक अर्थ को ही जान पाता है॥८७॥ शब्द से समभिरूढ़ नय, अत्यधिक विषयों को जानता है। इस प्रकार की आशंका का श्री विद्यानन्द आचाय वार्तिक द्वारा निवारण करते हैं - भिन्न - भिन्न पर्यायों को ग्रहण करने वाले पर्यायवाचक शब्दों के भेद होने पर भी उनसे अभिन्न अर्थ को ही अभीष्ट करने वाले शब्दनय से समभिरूढ़नय उस शब्द से विपरीत प्रकार का है। अर्थात् शब्दनय एकार्थवाची शब्दों में भेद नहीं करता है, परन्तु समभिरूढ़ नय शब्दभेद से अर्थभेद को ग्रहण करता है।८८॥ समभिरूढ़ नय से एवंभूत नय का विषय अधिक है? इस प्रकार की शंका का आचार्य निराकरण करते हैं। शब्दों में स्थित भिन्न-भिन्न धातुओं की क्रियाओं के भेद होने पर भी उसी अभिन्न अर्थ को स्वीकार करने वाले समभिरूढ़ नय से एवंभूत नय प्रचुरविषयवाला नहीं है। एवंभूत नय तो पढ़ाते समय ही मानव को पाठक कहेगा, किन्तु समभिरूढ़ नय खाते, पीते समय भी अध्यापक को पाठक कहता है / / 89 // इस प्रकार नयों के लक्षण और नयाभासों का विवेक तथा नयों के विषयका अल्पबहुत्वपन अथवा पूर्ववर्ती उत्तरवर्तीपन का व्याख्यान पूर्ण हुआ।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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