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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 132 हेतु के लक्षणों से रहित किन्तु हेतु समान दीखने वाले असद्धेतुओं को हेत्वाभास कहते हैं। नैयायिकों ने व्यभिचार, विरुद्ध, असिद्ध, सत्प्रतिपक्ष और बाधित ये पाँच हेत्वाभास माने हैं। वादी को इष्ट अर्थ से विरुद्ध अर्थ की कल्पना कर उसकी सिद्धि करके वादी के वचन का विघात करना प्रतिवादी का 'छल' है। वह वाक्छल, सामान्य छल और उपचार छल की अपेक्षा तीन भेद वाला है। साधर्म्य और वैधर्म्य आदि करके असमीचीन उत्तर उठाते रहना 'जाति' है। उसके साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपपत्तिसमा, उपलब्धिसमा, अनुपलब्धिसमा, नित्यसमा, प्रसंगसमा, प्रतिदृष्टांतसमा, अनुत्पत्तिसमा, संशयसमा, प्रकरणसमा, अनित्यसमा, कार्यसमा - ये चौबीस भेद हैं। उद्देश्य सिद्धि के प्रतिकूल ज्ञान हो जाना अथवा उद्देश्य सिद्धि के अनुकूल सम्यग्ज्ञान का अभाव हो जाना 'निग्रहस्थान' है। उसके भी प्रतिज्ञा हानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञा विरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, अपसिद्धांत, हेत्वाभास इतने भेद हैं। इस प्रकार प्रमाण आदि सोलह पदार्थों का किन्हीं (नैयायिकों) ने उपदेश किया है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि वे सोलह भी पदार्थ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इस प्रकार वैशेषिकों के द्वारा माने गये छह भाव तत्त्वों से भिन्न जाति वाले नहीं हैं। वैशेषिकों ने गुणवान या समवायिकारण हो रहे पदार्थ को द्रव्य माना है। पृथ्वी,जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन ये द्रव्यों के नौ भेद हैं। जैन सिद्धांतानुसार 'द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणाः' - यह गुण का लक्षण निर्दोष है। किन्तु वैशेषिकों ने संयोग और विभाग के समवायिकारणपन और असमवायिकारणपन से रहित हो रहे सामान्यवान् पदार्थ में जो कारणता है, उसका अवच्छेदक गुणत्व माना है। गुण के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रव्यत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार - ये चौबीस भेद हैं। __जो द्रव्य के आश्रय होकर रहे, गुणवाला नहीं हो, ऐसा संयोग और विभाग में किसी भाव पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखने वाला कारण 'कर्म' कहलाता है। उस कर्म के उत्क्षेपण, अधक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण, गमन-ये पाँच भेद हैं। नित्य होता हुआ जो अनेक में समवाय सम्बन्ध से रहता है, वह ‘सामान्य पदार्थ' माना गया है। उसके परसामान्य और अपर सामान्य दो भेद हैं। जो नित्य द्रव्यों में रहता है उसे 'विशेष' कहते हैं। नित्य द्रव्यों की परस्पर में व्यावृत्ति कराने वाले वे विशेष पदार्थ अनन्त हैं। नित्य सम्बन्ध को 'समवाय' कहते हैं। वस्तुत: वह एक ही है। वैशेषिक तुच्छाभाव पदार्थ के प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव, अन्योऽन्याभाव - ये चार भेद स्वीकार करते हैं। परन्तु भावों का प्रकरण होने से तुच्छाभाव का यहाँ अधिकार नहीं है। नैयायिकों के सोलह पदार्थ तो धर्म आदि छह द्रव्यों में गर्भित हो जाते हैं। इस प्रकार न्यायवेत्ताओं ने स्वीकार किया है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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