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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 131 प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टांतसिद्धांतावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानाख्याः षोडश पदार्थाः कैश्चिदुपदिष्टाः, तेपि द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायेभ्यो न जात्यंतरत्वं प्रतिपद्यते, गुणादयश्च पर्यायान्नार्थांतरमित्युक्तप्रायं / ततो द्रव्यपर्यायावेव तैरिष्टौ स्यातां, तयोरेव तेषामंतर्भावान्नामादिवत्। येप्याहुः / “मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतयः सप्त / षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृति: पुरुषः॥" इति पंचविंशतिस्तत्त्वानीति / तैरपि द्रव्यपर्यायावेवांगीकरणीयौ मूलप्रकृतेः पुरुषस्य च द्रव्यत्वात्, महदादीनां परिणामत्वेन पर्यायत्वात् रूपादिस्कंधसंतानक्षणवत्। ततो नैगमादिभेदानामेवार्थास्ते न पुनरपरा नीतयः / अपरा नीतिर्येषु त एव ह्यपरा नीतयः इति गम्यते, न चैतेषु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यां नैगमादिभेदाभ्यां अपरा नीति: प्रवर्तत इति तावेव मूलनयौ, नैगमादीनां तत एव जातत्वात्। रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा, गन्धतन्मात्रा, स्पर्शनइन्द्रिय, रसनाइन्द्रिय, घ्राणइन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, श्रोत्रइन्द्रिय, वचनशक्ति, हाथ, पाँव, जननेन्द्रिय, गुदेन्द्रिय, मन, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, और पुरुष ये सांख्यों के पच्चीस तत्त्व भी मूल पदार्थ रूप सिद्ध नहीं हो पाते हैं। द्रव्य और पर्याय के ही भेद-प्रभेद हैं।अत: नयों के विशेष प्रभेद पृथक् - पृथक् माने जाते हैं। किन्तु मूल पदार्थों को जानने की अपेक्षा दो ही मूल नय मानना यथेष्ट है॥१६॥ प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह, प्रमाण, प्रमेय, संशय स्थान ये 16 पदार्थ किन्हीं से उपदिष्ट हैं? प्रमा विशेषार्थ का कारण प्रमाण है, उसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार भेद हैं। प्रमाण के विषय को प्रमेय कहते हैं। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख, अपवर्ग ये बारह प्रमेय हैं। एक पदार्थ में अनेक कोटि का विमर्श करना संशय है। जिसका उद्देश्य लेकर प्रवृत्ति की जाती है, वह प्रयोजन पदार्थ है। जिस अर्थ में लौकिक और परीक्षकों की बुद्धि समानरूप से ग्राहिका हो जाती है, उसे दृष्टांत कहते हैं। शास्त्र का आश्रय लेकर ज्ञापन रूप से जिस अर्थ को स्वीकार किया गया है, उसकी समीचीन रूप से व्यवस्था कर देना ‘सिद्धांत' है। वह सिद्धांत सर्वतंत्र, प्रतितंत्र, अधिकरण, अभ्युपगम भेदों से चार प्रकार का है। परार्थानुमान के उपयोगी अंगों को 'अवयव' कहते हैं जो कि अनुमानजन्य बोध के अनुकूल है। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन ये अवयव के पाँच भेद हैं। . विशेषरूप से नहीं जाने गये तत्त्व में कारणों की उपपत्ति से तत्त्वज्ञान के लिए किया गया विचार 'तर्क' है। विचार कर स्वपक्ष और प्रतिपक्ष से अर्थ का अवधारण करना 'निर्णय' है। अपने-अपने पक्ष का प्रमाण और तर्क से जहाँ साधन और उलाहना हो सके, जो सिद्धांत के अविरुद्ध हो, पाँच अवयवों से युक्त हो ऐसे पक्ष और प्रतिपक्ष के परिग्रह को 'वाद' कहते हैं। 'वाद' में कहे गये विशेषणों से युक्त हुआ, जहाँ छल, जाति और निग्रह स्थानों से स्वपक्ष का साधन और परपक्ष में उलाहने दिये जाते हैं, वह 'जल्प' है। वही जल्प जब प्रतिकूल पक्ष की स्थापना से रहित होजाता है तो वह 'वितंडा' हो जाता है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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