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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 133 गुण, कर्म आदि पर्याय में गभित हो जाते हैं। द्रव्य तो द्रव्यार्थिक नय द्वारा जान लिया जाताहै। और पर्यायार्थिक नय के द्वारा गुण-पर्याय आदि जान लिये जाते हैं। इसलिए द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो नय ही अभीष्ट करने चाहिए। उन प्रमाण, प्रमेय आदि या द्रव्य, गुण आदि विषयों का उन द्रव्य और पर्यायों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि सर्व द्रव्य और पर्यायों में ही गर्भित हो जाते हैं। जो कपिलमत अनुयायी कहते हैं कि मूलभूत प्रकृति तो किसी का विकार नहीं है अर्थात् प्रकृति किसी अन्य कारण से उत्पन्न नहीं होती है। और महत्तत्त्व आदि सात पदार्थ प्रकृति और विकृति दोनों हैं अर्थात् - महत्तत्त्व, अहंकार, शब्दतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा,गन्धतन्मात्रा ये सात विकार के कारणस्वरूप हैं और उत्तरवर्ती कार्यों की जननी प्रकृतियाँ हैं। तथा ग्यारह इन्द्रिय और पाँच पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये.सोलह गण विकार ही हैं। क्योंकि इनसे उत्तरकाल में कोई सृष्टि उत्पन्न नहीं होती है। / पच्चीसवाँ तत्त्व कूटस्थ आत्मा किसी का कारण रूप प्रकृति नहीं है और किसी का कार्य भी नहीं है। अतः विकृति भी नहीं है। वह उदासीन, द्रष्टा, भोक्ता, चेतन पदार्थ है। इस प्रकार सांख्यों ने पच्चीस तत्त्व स्वीकार किये हैं, जिसमें प्रकृति आदि के लक्षण प्रसिद्ध हैं, परन्तु उनको भी द्रव्य, पर्याय दो ही पदार्थ स्वीकार कर लेना चाहिए। क्योंकि सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणों की साम्य अवस्थारूप प्रकृति तत्त्व और आत्मा तत्त्व तो द्रव्य हैं। अत: द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं और महत्, अहंकार आदि प्रकृति के परिणाम हैं। अत: पर्याय हैं। ये तेईस अकेले पर्यायार्थिक नय के विषय हैं। जबकि पच्चीस मूलतत्त्व ही नहीं हैं, तो पच्चीस पदार्थों को जानने के लिए पच्चीस मूलनयों की आवश्यकता नहीं है। जैसे कि बौद्धों के माने गये रूप आदि पाँच स्कन्धों की सन्तान या प्रतिक्षण परिणमने वाले परिणामों का क्षणिकपना इन द्रव्य या पर्यायों से भिन्न नहीं है। संतान तो द्रव्यस्वरूप है और पाँच जाति के स्कन्धों के क्षणिक परिणाम पर्यायस्वरूप हैं। अत: दो नयों से ही कार्य चल सकता है। सजातीय और विजातीय पदार्थों से व्यावृत्त तथा परस्पर में सम्बन्ध को प्राप्त नहीं हो रहे, किन्तु एकत्रित हो रहे रूप परमाणु, रस परमाणु, गन्ध परमाणु, स्पर्श परमाणु तो रूप स्कन्ध हैं। सुख, दुःख आदि वेदना स्कन्ध है। सविकल्पक, निर्विकल्पक, ज्ञानों के भेद-प्रभेद तो विज्ञान स्कन्ध हैं। वृक्ष इत्यादि नाम तो संज्ञा स्कन्ध है। ज्ञानों की वासनायें या पुण्य, पापों की वासनायें संस्कार स्कन्ध हैं। ये सब मूल दो नयों के ही विषय हैं। अत: ऊपर कहे गये वे सम्पूर्ण अर्थ नैगम संग्रह आदि नय भेदों के ही विषय हैं। फिर कोई पृथक् नयों के गढ़ने के लिए दूसरा नया मार्ग निकालना आवश्यक नहीं। 'अपरनीतयः' - इस शब्द का अर्थ यह समझा जाता है कि जिन अर्थों में दूसरी नीति है वे ही अर्थ भिन्न नीतिवाले हैं। किन्तु इन चार, पाँच, छह, सोलह, पच्चीस पदार्थों में तो नैगम आदि भेदों को धारने वाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो मूल नयों से भिन्न कोई दूसरी नीति नहीं है। इस कारण वे दो ही मूलनय हैं। नैगम आदि भेद-प्रभेद तो उन दो से ही उत्पन्न होते हैं। उन दो मूल नयों के नैगम आदि अनेक भेद हो जाते हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार तीन तो द्रव्यार्थिक नय के भेद कहे जाते हैं और ऋजुसूत्रनय, शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत ये चार भेद पर्यायार्थिक नय के होते हैं। अर्थ की प्रधानता होने से पूर्व के चार नय अर्थ नय हैं। शेष तीन शब्दनय हैं। द्रव्यार्थिक की अपेक्षा अभेद और पर्यायार्थिक की अपेक्षा भेद हो जाने स बहुत विकल्प वाले नय हो जाते हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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