________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1 - भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् // 21 // किं पुनः कुर्वन्निदमावेदयतीत्याह;भवप्रत्यय इत्यादिसूत्रमाहावधेर्बहिः। कारणं कथयन्नेकं स्वामिभेदव्यपेक्षया // 1 // देवनारकाणां भवभेदात्कथं भवस्तदवधेरेकं कारणमिति न चोद्यं भवसामान्यस्यैकत्वाविरोधात् / कथं बहिरंगकारणं भवस्तस्यात्मपर्यायत्वादिति चेत् / नामायुरुदयापेक्षो नुः पर्यायो भवः स्मृतः। स बहिःप्रत्ययो यस्य स भवप्रत्ययोऽवधिः॥२॥ परोक्षभूत मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का कथन करके श्री उमा स्वामी अब क्रमप्राप्त अवधिज्ञान का व्याख्यान करने के लिए सूत्र कहते हैं - . भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकियों के होता है॥२१॥ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से रूपी पदार्थों को जानना अवधिज्ञान है। यह सूत्र किसलिए बनाया है? ऐसा पूछने पर कहते हैं - अवधिज्ञान के देव और नारकी इन दो अधिपतियों के भेदों की विशेष अपेक्षा नहीं करके अवधिज्ञान के केवल बहिरंग एक कारण का कथन करते हुए श्री उमास्वामी ने "भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां" इस सूत्र का कथन किया है अर्थात् भिन्न दो स्वामियों के सामान्यरूप से एक बहिरंग कारण द्वारा हुए अवधिज्ञान का प्रतिपादक यह सूत्र है॥१॥ शंका - देवों की उत्पत्ति, स्थिति, सुख आदि भव की प्रक्रिया भिन्न है और नारकियों की उत्पत्ति, दुःख भोगना, नरक आयु का उदय आदि भव की पद्धति भिन्न है। इस प्रकार देव और नारकियों के भवों में भेद है, तो सूत्रकार ने उन दोनों के अवधिज्ञान का एक कारण भव ही कैसे कह दिया है? __समाधान - इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है क्योंकि सामान्य रूप से भव के एकपन का कोई विरोध नहीं है अर्थात् उपपाद जन्म की अपेक्षा दोनों एक हैं। शंका - भव अवधिज्ञान का बहिरंग कारण कैसे हो सकता है? क्योंकि भव तो जीवद्रव्य की पर्याय है अर्थात् जीव के भवविपाकी आयुष्यकर्म का उदय होने पर जीव को उपादान कारण मानकर जीव की भवपर्याय होती है। ___समाधान - गति नामक नामकर्म और आयुकर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाले जीव (आत्मा) की पर्याय को भव कहा गया है। जिस अवधिज्ञान का बहिरंग कारण भव है, वह ज्ञान भवप्रत्यय अवधि कहलाता ह॥२॥