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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *2 बहिरंगस्य देवगतिनामकर्मणो देवायुषश्चोदयाद्देवभवः। तथा नरकगतिनामकर्मणो नरकायुषश्चोदयानरकभव इति / तस्य बहिरंगतात्मपर्यायत्वेऽपि न विरुद्धा। कथमत्रावधारणं, देवनारकाणामेव भवप्रत्ययोऽवधिरिति वा भवप्रत्यय एव देवनारकाणामिति? उभयथाप्यदोष इत्याह; येऽग्रतोऽत्र प्रवक्ष्यन्ते प्राणिनो देवनारकाः। तेषामेवायमित्यर्थान्नान्येषां भवकारणः॥३॥ भवप्रत्यय एवेति नियमान्न गुणोद्भवः। संयमादिगुणाभावाद्देवनारकदेहिनाम् // 4 // नन्वेवमवधारणेऽवधौ ज्ञानावरणक्षयोपशमहेतुरपि न भवेदित्याशंकामपनुदति बहिरंग देवगति नामक नामकर्म और आयुष्यकर्म के उदय से आत्मा को देवभव होता है तथा नरकगति नामक नामकर्म और नरक आयु इन दो बहिरंग कारणों के उदय से आत्मा की नरकभव पर्याय . होती है। इस प्रकार उस भव को आत्मा का पर्यायपना होने पर भी बहिरंग कारणपना विरुद्ध नहीं है। शंका - देव और नारकी जीवों के ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है अथवा भवप्रत्यय अवधि ही देव और नारकियों के होती है? ऐसा अभिमत है, इन दोनों में कैसी अवधारणा है? समाधान - दोनों प्रकारों से अवधारण करने पर कोई दोष नहीं आता है। इसी बात को आचार्य स्पष्ट करते हैं - इसी तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में आगे तीसरे, चौथे अध्याय में जो प्राणी नारकी.और देव कहे जायेंगे, उन प्राणियों के ही भव को कारण मान कर उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान होता है। अन्य मनुष्य या तिर्यंच प्राणियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता है। ऐसी अवधारणा को अन्वितकर अर्थ कर देने से देव, नारकियों के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में भवप्रत्यय अवधिज्ञान का निराकरण हो जाता है।।३।। ___भवप्रत्यय ही अवधिज्ञान देव, नारकियों के होता है। इस प्रकार दूसरा नियम कर देने से देव और नारकियों के गुण से उत्पन्न क्षयोपशमनिमित्त अवधिज्ञान का निषेध हो जाता है। क्योंकि देव और नारकियों के सदा अप्रत्याख्यानावरण कर्म का उदय बना रहने के कारण संयम, देशसंयम और श्रेणी आदि के भावस्वरूप गुणों का अभाव होने से वैक्रियिक शरीरधारी देवनारकियों के गुणप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता है॥४॥ देवनारकियों के अवधिज्ञान में भवप्रत्यय की ही यदि अवधारणा की जाएगी, तब तो ज्ञानावरण का क्षयोपशम भी उस अवधिज्ञान का हेतु नहीं हो सकेगा? इस प्रकार की आशंका का श्री विद्यानंद स्वामी वार्त्तिकों से निराकरण करते हैं - ___ "भवप्रत्यय एव" ऐसा कह देने से अवधिज्ञानावरण के कर्म के क्षयोपशम की हेतुता का व्यवच्छेद हो जाने का प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि क्षयोपशम के अप्रतियोगीपन का निर्णय हो चुका है अर्थात् अवधारण द्वारा विपक्षभूत प्रतियोगियों का निवारण हुआ करता है। भावार्थ - भवप्रत्यय का प्रतियोगी भवप्रत्ययाभाव या संयम आदि गुण हैं। अतः भवप्रत्यय ही' ऐसा अवधारण करने पर भवप्रत्ययाभाव का ही निवारण होता है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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