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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 123 तस्य व्यंजको नयः स्यादिति न शंकनीयं, “सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः” इति वचनात् / समानो हि धर्मो यस्य दृष्टांतस्य तेन साधर्म्य साध्यस्य धर्मिणो मनागपि वैधाभावात्। ततोस्याविरोधेनैव व्यंजक इति निश्चीयते दृष्टांतसाधाददृष्टांतोत्सरणादित्यनेन दृष्टविरोधस्य निवर्तनात् / न तु कथंचिदपि दृष्टांतवैधाददृष्टवैपरीत्यादित्यनेनेष्टविरोधस्य परिहरणात् दृष्टविपरीतस्य सर्वथानिष्टत्वात्। स्वयमुदाहृतश्चैवं लक्षणो नयः स्वामिसमंतभद्राचार्यैः / “सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात्" इति सर्वस्य वस्तुनः स्याद्वादप्रविभक्तस्य इस प्रकार तो प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा देखे गये और अनुमान आदि प्रमाणों से इष्ट किये गये स्वरूपों से विरुद्ध हो रहे स्वरूपों के द्वारा उस अर्थ की व्यञ्जनारूप ज्ञप्ति कराने वाला ज्ञान नय हो जायेगा? ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि “दृष्टान्त धर्मी के साथ इष्ट, अबाधित, असिद्ध स्वरूप साध्य का साधर्म्य हो जाने से अविरोध रूप से पदार्थ विशेषों का ज्ञापक नयज्ञान है"- ऐसा श्री समन्त भद्र आचार्य का वचन है। जिस अन्वय दृष्टान्त का धर्म समान है, उसके साथ साध्यधर्मी का साधर्म्य होता है। जरा से भी वैधर्म्य का अभाव है। अर्थात् - निर्णीत किये गये दृष्टान्त के साथ प्रकरणप्राप्त साध्य का साधर्म्य हो जाने से ज्ञप्ति करने में कभी प्रत्यक्ष या अनुमान आदि से विरोध नहीं आता है। अतः इस अर्थ का अविरोध करके ही नय ज्ञान व्यंजक है, ऐसा निश्चय कर लिया जाता है। अन्वय दृष्टान्त का साधर्म्य मिला देने से अन्य दृष्टान्तों का निराकरण कर दिया जाता है। अत: इस दृष्टान्त साधर्म्य के वचन के द्वारा दृष्ट प्रत्यक्ष प्रमाण से आने वाले विरोध की निवृत्ति हो जाती है। अन्वय दृष्टान्तके विधर्मापने से यदि नय व्यंजक होता तो केसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष दाग आये हुए विरोध की निवृत्ति नहीं हो सकती थी और अदृष्ट वैपरीत्य (दृष्ट' से विपरीतपना नहीं इस) विशेषण द्वारा तो अनुमान आदि प्रमाणों से आने योग्य विरोधों का परिहार हो जाता है। क्योंकि दृष्ट से विपरीत हो रहे अनुमान आदि विरुद्ध पदार्थों का नयों द्वारा ज्ञान हो जाना सभी प्रकारों से अनिष्ट है। “सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यात्' - इस वाक्य करके दृष्टान्त साधर्म्य और अदृष्टान्त वैधर्म्य ये. दोनों अर्थ निकल आते हैं। अतः दृष्टान्त साधर्म्य से दृष्ट विरोध और अदृष्टान्त वैधर्म्य से इष्ट विरोध की निवृत्ति हो जाती है। . स्वामी श्री समन्तभद्र आचार्य महाराज ने स्वयं अपने देवागम स्तोत्र में इसी प्रकार लक्षण वाले नय को उदाहरण देकर समझाया है कि "सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् / असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते।" चेतन, अचेतन, द्रव्य पर्याय आदि सम्पूर्ण पदार्थों को स्वरूप (स्वद्रव्य) आदि यानी स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव-इस स्वकीय चतुष्टय से सत् स्वरूप ही कौन नहीं चाहता? अर्थात् स्वचतुष्टय से सम्पूर्ण पदार्थ अस्तिरूप हैं। यह एक नय का विषय है तथा परकीय चतुष्टय से सम्पूर्ण पदार्थ नास्तिस्वरूप ही हैं। यह दूसरा नय है। अन्यथा व्यवस्था नहीं हो सकती है। स्वकीय अंशों का उपादान और परकीय अंशों का त्याग करना ही वस्तु के वस्तुत्व को रक्षित रखता है। इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार पृथक्- पृथक् विशेष धर्मों से गृहीत सम्पूर्ण वस्तु का जो विशेष सत्त्व है उस अस्तित्व का स्वरूप
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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