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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *122 तत्र सामान्यतो नयसंख्या लक्षणं च निरूपयन्नाहसामान्यादेशतस्तावदेक एव नयः स्थितः। स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजनात्मकः // 2 // सामान्यादेशात्तावदेक एव नयः स्थितः सामान्यस्यानेकत्वविरोधात्। स च स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नय इति वचनात्। ननु चेदं हेतोर्लक्षणवचनमिति केचित् / तदयुक्तं / हेतोः स्याद्वादेन प्रविभक्तस्यार्थस्य सकलस्य विशेष व्यंजयितमसमर्थत्वादन्यत्रोपचारात। हेतजनितस्य बोधस्य व्यंजक: प्रधानभावत एव युक्तः / स च नय एव स्वार्थेकदेशव्यवसायात्मकत्वादित्युक्तं / नन्वेवं दृष्टेष्टविरुद्धेनापि रूपेण सामान्य की विवक्षा करने से तो नय एक ही व्यवस्थित है अर्थात् चाहे कितने भी पदार्थ क्यों नहीं हों, सामान्य रूप से उनका एक ही प्रकार हो सकता है; दो, चार आदि नहीं। सम्पूर्ण नयों में व्यापने वाला नय का सामान्य लक्षण तो श्री समन्तभद्र आचार्य ने आप्तमीमांसा में इस प्रकार कहा है कि "स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः" स्याद्वाद श्रुतज्ञान के द्वारा ग्रहण किये गये विशेष विशेषांशों के विभाग से युक्त अर्थों के विशेष को व्यक्त कर देना नय है। प्रमाण से ग्रहण किये गये अर्थ के एकदेश को ग्रहण करने वाला वक्ता का अभिप्राय विशेषनय है॥२॥ सर्वप्रथम सामान्य की विवक्षा से नय एक ही व्यवस्थित है। क्योंकि सामान्य का अनेकपने के साथ विरोध है। (समान पदार्थों का सामुदायिक परिणाम महासत्ता के समान एक हो सकता है।) स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा प्रकृष्ट रूप से जान लिये गये गुण, पर्याय आदि का विभाग करके युक्त अर्थ के विशेषों का व्यंजक नय है। अनेक स्वभावों के साथ तदात्मक हो रहे परिपूर्ण अर्थ को जानने वाला ज्ञान प्रमाण है। और उस अर्थ के अन्य धर्मों की अपेक्षा रखता हुआ अंशों को जानने वाला ज्ञान नय है। तथा अन्य धर्मों का निराकरण करके अंशग्राही ज्ञान कुनय है। आप्तमीमांसा में अहेतुवाद रूप स्याद्वाद आगम और हेतुवाद रूप नय इन दोनों से अलंकृत तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहते हुए श्री समन्तभद्र आचार्य के समक्ष हेतु के लक्षण की जिज्ञासा प्रकट किये जाने पर शिष्य के प्रति स्वामी जी ने “सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः स्याद्वादप्रविभक्तार्थ विशेषव्यञ्जको नयः" - इस कारिका द्वारा हेतु का लक्षण कहा है। इसको नय का परिशुद्ध लक्षण तो नहीं मानना चाहिए। क्योंकि किसी प्रकरणवश कही गयी बात का अन्य प्रकरणों में भी वही अर्थ लगा लेना उचित नहीं है। इस प्रकार कोई कह रहा है। अब आचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना युक्ति रहित है। क्योंकि स्याद्वाद द्वारा प्रविभक्त किये गये सकल अर्थ के विशेष की व्यक्त ज्ञप्ति कराने के लिए हेतु का सामर्थ्य नहीं है। उपचार से हेतु को ज्ञापक कहा जा सकता है। उपचार के सिवाय वस्तुत: ज्ञापक चेतन ज्ञान ही होते हैं। हेतु से उत्पन्न हुए बोध की प्रधान रूप से व्यंजना (ज्ञप्ति) करने वाला वह नय ज्ञान ही युक्त हो सकता है। अथवा हेतु से उत्पन्न हुए ज्ञान का व्यंजक प्रधान रूप से ही कार्य को करने वाला कारण हो सकेगा और वह ज्ञानात्मक नय ही हो सकता है। क्योंकि करण आत्मक अपने और कर्मस्वरूप अर्थ के एकदेश का व्यवसाय करना स्वरूप नय होता है। इस प्रकार हम पूर्व में “प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र की चतुर्थ वार्तिक में कह चुके हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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