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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 124 विशेषः सत्त्वं तस्य व्यंजको बोधः स्वरूपादिचतुष्टयाद् दृष्टसाधर्म्यस्य स्वरूपादिचतुष्टयात् सन्निश्चितं न पररूपादिचतुष्टयेन तद्वत्सर्वं विवादापन्नं सत् को नेच्छेत्? कस्यात्र विप्रतिपत्तिरिति व्याख्यानात्॥ संक्षेपतो नयविभागमामर्शयतिसंक्षेपावौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ। द्रव्यार्थो व्यवहारांतः पर्यायार्थस्ततोऽपरः // 3 // विशेषत: संक्षेपात् द्वौ नयौ द्रव्यार्थः पर्यायार्थश्च। द्रव्यविषयो द्रव्यार्थः पर्यायविषयः पर्यायार्थः प्रथमो नैगमसंग्रहव्यवहारविकल्पः। ततोपरश्चतुर्धा ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतविकल्पात्॥ विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादयः। तथातिविस्तरेणैतद्भेदाः संख्यातविग्रहाः॥४॥ आदि चतुष्टय व्यंजक ज्ञान नय है। इष्ट पदार्थ के साथ साधर्म्य का स्वरूप आदि चतुष्टय से वस्तु में अस्तित्व निश्चित किया गया है। परकीय रूप, क्षेत्र आदि के चतुष्टय के द्वारा वस्तु का अस्तित्व निर्णीत नहीं है। उसी के समान सभी विवाद में प्राप्त जीव, बन्ध, मोक्ष आदि पदार्थों के अस्तित्व को कौन इष्ट नहीं करेगा? अर्थात् इस प्रकार नय की विवक्षा से प्रमाण सिद्ध पदार्थों के इस अस्तित्व में भला किस विद्वान को विवाद रह सकता है? अर्थात् किसी को भी नहीं। इस प्रकार उस कारिका का व्याख्यान है। सामान्य रूप से नय की संख्या और लक्षण को कहकर अब श्री विद्यानन्द आचार्य नय के संक्षेप से विभागों का परामर्श कराते हैं। संक्षेप से नय दो प्रकार के हैं। प्रमाण की विषयभूत वस्तु अंशी है,तथा द्रव्य और पर्याय उसके अंश हैं। वस्तु के विशेष धर्म के द्वारा द्रव्य और पर्याय को विषय करने वाले क्रमशः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं। द्रव्यार्थनय के नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन विकल्प हैं और पर्यायार्थ नय ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत चार प्रकार का है॥३॥ इस प्रकार सामान्य रूप से नयों का कथन करके आचार्य अब विशेष रूप से नयों का कथन करते हैं। (संक्षेप से नय दो हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक / वस्तु के नित्य अंश द्रव्य को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक है और वस्तु के अनित्य अंश पर्यायों को विषय करने वाला नय पर्यायार्थिक है) प्रथम द्रव्यार्थिक नय के नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन विकल्प हैं। उससे भिन्न दूसरा पर्यायार्थिक नय ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन भेदों से चार प्रकार का है। विस्तार से विचार करने पर ये नैगम आदि एवंभूत पर्यन्त सात नय हैं। ऐसा समझ लेना चाहिए। तथा अत्यन्त विस्तार से नय विशेषों की जिज्ञासा होने पर संख्याते शरीर वाले इन नयों के भेद हो जाते हैं। अर्थात् - शब्द वस्तु के धर्म को कहते रहते हैं। अतः जितने शब्द हैं, उतने नय हैं, अकार, ककार आदि वर्णों द्वारा बनाये गये अभिधायक शब्द संख्यात प्रकार के हैं। शब्दों के भेद असंख्यात और अनन्त नहीं हो सकते हैं। शब्दों की अपेक्षा नयों के भेद अधिक से अधिक मध्यम संख्यात हैं। यह संख्या कोटि, अरब, खरब, नील, पद्म आदि संख्याओं से कहीं अत्यधिक है॥४॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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