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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 118 विधिरस्तु विशेषाभावात् / तेन शब्दस्य संबंधाभावान्न शब्दात्तद्विधिरिति चेत्, तत एव वक्त्रभिप्रेतस्याप्यर्थस्य विधिर्माभूत् / तेन सह कार्यकारणभावस्य संबंधस्य सद्भावाच्छब्दस्य तद्विधायित्वमिति चेन्न, विवक्षामंतरेणापि सप्ताद्यवस्थायां शब्दस्य प्रवत्तिदर्शनात्कार्यत्वादव्यवस्थानात / प्रतिक्षिप्तश्चान्यापोहैकांत: परस्तादिति तर्कितं। नियोगो भावना धात्वर्थो विधियंत्रारूढादिरन्यापोहो वा यदा कैश्चिदेकांतेन विषयो वाक्यस्यानुमन्यते तदा तज्जनितं वेदनं श्रुताभासं प्रतिपत्तव्यं, तथा वाक्यार्थनिर्णीतेर्विधातुं दुःशकत्वादिति / कः पुनरवधिविपर्यय इत्याहहै, तो अन्यों की व्यावृत्ति कैसे की जा सकती है। वक्ता के अभिप्राय में आरूढ़ अर्थ की विधि ही अन्यापोह है अर्थात्-वस्तुभूत अर्थ को शब्द नहीं छूता है। विवक्षारूप कल्पना में अभिरूढ़ अर्थ की विधि को कर देता है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर तो बहिर्भूत वास्तविक अर्थ की शब्द द्वारा विधि हो जाती हैं। विवक्षित अर्थ की विधि और बहिरंग वाच्य अर्थ की विधि करने में कोई अन्तर नहीं है। उस बहिरंग अर्थ के साथ शब्द का कोई वास्तविक वाच्य वाचक रूप सम्बन्ध नहीं है। अतः शब्द द्वारा उस बहिर्भूत अर्थ की विधि नहीं की जा सकती है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर तो ऐसा सम्बन्ध नहीं होने से वक्ता को विवक्षित अर्थ की भी विधि नहीं हो सकेगी। अत: उस विवक्षा में स्थित अर्थ के साथ कार्य-कारण भाव सम्बन्ध की सहायता से शब्द के विवक्षित अर्थ की विधि को करा देनापना है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि गाढ़रूप से हुई सुप्तावस्था या मूर्च्छित आदि अवस्थाओं में विवक्षा के बिना भी शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है। अत: उस विवक्षा के कार्यपने के द्वारा शब्द की व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार पूर्व के प्रकरणों द्वारा अन्यापोह के एकान्त का खण्डन किया जा चुका है। अत: अधिक तर्कणा करने से क्या प्रयोजन है? नियोग, भावना, शुद्ध धात्वर्थ, विधि, यंत्रारूढ, पुरुष आदि अथवा अन्यापोह, ये एकान्त रूप से जब कभी वाक्य के द्वारा विषय किये गये अर्थ किन्हीं मतावलम्बियों के द्वारा स्वसिद्धान्त अनुसार माने जाते हैं, उस समय नियोग आदि को विषय करने वाले उन वाक्यों से उत्पन्न हुआ ज्ञान श्रुतज्ञानाभास समझना चाहिए। क्योंकि, उस प्रकार उनके मन्तव्य अनुसार वाक्य अर्थ का निर्णय करना दुःसाध्य है अर्थात् - उनके द्वारा माना गया वाक्य का अर्थ प्रमाणों से निर्णीत नहीं होता है। अत: वे उस समय कुश्रुत ज्ञानी हैं। इस प्रकार मतिज्ञान श्रुतज्ञानों के आभासों का वर्णन किया है। क्योंकि कारणविपर्यास, स्वरूपविपर्यास और भेदाभेद विपर्यास को अवलम्बन लेकर अनेक सम्प्रदायों के अनुसार जीवों के अनेक कुज्ञान उत्पन्न होते हैं। सम्यग्ज्ञान का अन्तरंग कारण सम्यग्दर्शन हो जाने पर चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ कर ऊपर के गुणस्थानों में विर्पयय ज्ञान नहीं होता है। अवधिज्ञान का विपर्यय क्या है? ऐसी जानने की इच्छा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते into
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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