SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 117 प्रतिभास्यस्यार्थस्य व्यवस्थापितात्वात् / प्रमेयरूपो विधिरिति वचनमयुक्तं, प्रमाणाभावे प्रमेयरूपत्वायोगात्तस्यैव च द्वयरूपत्वविरोधात्। कल्पनावशाद्विधेयरूपत्वे अन्यापोहवादानुषंगस्याविशेषात्। प्रमाणप्रमेयोभयरूपो विधिरित्यप्यनेन निरस्तं भवतु / अनुभयरूपोऽसावितिचेत्, खरशृंगादिवदवस्तुतापत्तिः कथमिव तस्य निवार्यतां? तथा यंत्रारूढो वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्यय एवान्यापोहमंतरेण तस्य प्रवर्तकत्वायोगाद्विधिवचनवत्। एतेन भोग्यमेव पुरुष एव वाक्यार्थ इत्यप्येकान्तो निरस्तः, नियोगविशेषतया च यंत्रारूढादेः प्रतिविहितत्वात्। न पुनस्तत्प्रतिविधानेतितरामादरोस्माकमित्युपरम्यते। तथान्यापोह एव शब्दार्थ इत्येकांतो विपर्यय: स्वरूपविधिमंतरेणान्यापोहस्यासंभवात् / वक्त्रभिप्रायारूढस्यार्थस्य विधिरेवान्यापोह इत्थं इति चेत्, तथैव बहिरर्थस्य विधि प्रमेय स्वरूप है, इस प्रकार द्वितीय पक्ष अनुसार कहना भी युक्ति रहित है। क्योंकि प्रमाण को स्वीकार किये बिना विधि में प्रमेय स्वरूपपना नहीं घटता है। और उस एक ही विधि पदार्थ को एकान्तवादियों के यहाँ प्रमाणपन, प्रमेयपन, इन दो स्वरूपपने का विरोध है। यदि कल्पनावश विधि को प्रमाण, प्रमेय दोनों रूप माना जाएगा तो बौद्धों के अन्यापोहवाद का प्रसंग आता है, क्योंकि इन दोनों में कोई अन्तर . नहीं है जिससे कि विधि में प्रमेयपन मानते हुए अन्य व्यावृत्तियाँ स्वीकार नहीं की जावें। अब तृतीय विकल्प के अनुसार प्रमाण, प्रमेय उभय स्वरूप विधि है। यह कल्पना भी इस उक्त कथन से निराकृत कर दी गयी है क्योंकि दो रूपपने में जो दोष आते हैं वही दोष उभयरूप मानने में प्राप्त होते हैं। ___यदि चतुर्थ कल्पना अनुसार वह विधि अनुभयस्वरूप मानी जायेगी अर्थात् प्रमाण प्रमेय दोनों के साथ अतदात्मक विधि को वाक्य का अर्थ माना जायेगा, तब तो खर विषाण, आकाश कुसुम आदि के समान उस विधि को अवस्तुपन की आपत्ति हो जाना किस प्रकार निवारण किया जा सकता है ? अत: वाक्य का अर्थ. विधि नहीं हो सकता है। यंत्र में आरूढ़ हो जाना वाक्य का अर्थ है। इस प्रकार एकान्त करना भी कुश्रुत ज्ञान रूप विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि अन्य की व्यावृत्ति किये बिना उस यंत्रारूढ़ को किसी ही विवक्षित विषय में प्रवृत्ति करा देना पन घटित नहीं होता है। जैसे कि वाक्य के द्वारा विधि का ही कथन होना मानने पर किसी विशेष ही पदार्थ में विधि को प्रवर्तकपना नहीं बनता है। इस उक्त कथन के द्वारा भोग्यरूप ही वाक्य का अर्थ है अथवा आत्मा ही वाक्य का अर्थ है, ये एकान्त भी निराकृत कर दिये गये हैं। क्योंकि ग्यारह प्रकार के नियोगों का विशेष भेद हो जाने से यंत्रारूढ़ पुरूषस्वरूप आदि नियोगों का पूर्व प्रकरणों में खण्डन किया जा चुका है, पुन: उनके खण्डन करने में हमारा अत्यधिक आदर नहीं है। अतः विराम लिया जाता है। इस प्रकार मीमांसक और अद्वैतवादियों द्वारा नियोग भावना और विधि को वाक्य का अर्थ मानना विपर्यय ज्ञान है। तथा, अन्यापोह ही शब्द का अर्थ है यह बौद्धों का एकान्त भी विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि वस्तु के स्वरूप की विधि के बिना अन्यापोह की असंभवता है अर्थात् जब किसी की विधि करना ही नियत नहीं
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy